अtधनिक युग ५१३ इस काल के संतों में में रामरहस दत एवं निश्चल दास ने, क्रमश: कबीर पंथ ए दादू पंथ के पत्र अनुयायी होते हुए भी, संतमत की प्रमुख वातों को स्पष्ट करने के लिए भा रचना पद्धति अथवा विषय विवेचन शैली का माध्यम स्ीकार किया। संत तुलसी साहब ने इसी प्रकार कई सांप्रदायिक प्रश्नों का व्यापक दष्टि के साथ समाधान किया। और उससे परिणाम निकाले, संत शिव दयाल एवू सालिगराम में अपना सत्संगपृथक रूप से स्थापित करने तथा उसके द्वारा रहस्यमयी साधनाओं का अभ्यास बतलाते हुए भी, मूल संतमत का हो समर्थन किया तथा स त हेतु राज ने अपने संप्रदाय में समाण शुद्धि का कार्यक्रम रखा। स्वामी रामतीर्थ में तथा महात्मा गांधी ने भी अपनेअपने साविक जीवन के आधार पर आदर्श संत स्वरूप का स्पष्ट परिचय देते हुए इस कार्य में प्रारंभिक काल के संतों की भांति नितांत स्वतंत्र एवं निरपेक्ष रूप से पूरा सहयोग प्रदान किया । इस काल के संतों की कृतियों में सं लित विचारों के साथ-साथ एक अपूर्द गांभीर्य एवं भावो न्माद भो लक्षित होता है जो अत्यंत गहरी और पक्क्री अनुभूति के ही कारण संभव हो सकता है और जिससे आकृष्ट एवं प्रभावित हो जाना कुछ भी कठिन नही है । इस विशेषता ने ही उनकी कथनशैली में उस ख़रापन और बुटलेपन का भी समावेश कर दिया है जो कवीर आदि संतों में ही दीक पड़ता था । इस काल के संतों में पल साहब एवं स्वार्थी रामतीर्थ की मस्ती और भावावेश विशेष रूप से उल्लेखनीय है तथा इसी प्रकार तुलसी साहब की स्पष्टवादिता और खो आलोचना की भी चर्चा किये बिना हम नहीं रह सकते । इस काल के संवों को रचनाओं में फ़ारसी एवं उर्दू भाषा की वर्णन शैलियों का प्रभाव भी स्पष्ट लक्षित होता है। पलटू साहब, तुलसी साहत्र, संत शिवदयाल, सालिगराम एवं स्वा० रातोर्थ में ऐसे प्रयोगों की प्रवृत्ति श्रमशः तो हुई हो चलो गई है । इनमें से प्रथम दो संत जहां सूफी मत ३३
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