५१४ संत-काव्य से न्यूनाधिक प्रभावित होने के ही कारण इस प्रकार के उदाहरण उपस्थित करते हैं वहां शेष तीन संतों में इस प्रकार की प्रवृत्ति स्वाभाविक सी जान पड़ती हैं और वे इसे अपनाते समय अपनी नैसर्गिक प्रतिभा दिखलाते हैं । स्वाe रामतीर्थ की उर्दू ‘चह्न' वाली रचनाओं में जिस मौलिकता और प्रवाह का चमत्कार है वह उनकी ३स विशेषता के कारण और भी अधिक बढ़ गया है 1 उनकी भावोमाद भरी पंक्तियां अधिक तर इसी शैली द्वारा व्यक्त की गई और अत्यंत मार्मिक और टोली हैं । रामरस दास एवं निश्चलदास की विषय प्रतिपादन शैली इसके नितांत विपरीत जाती हुई जान पड़ती है । उसमें विषय की गंभीरता का भारोपन पगपग पर दो पड़ता है और उस पर सर्वे व पंडिता है - एन की छाप लगी रहती है । रामरहस दास की वर्णन शैलो में तो रहस्य- गोपन की भी चेष्टा दिखलाई पड़ती। है । निश्च लदास की समास शैली विशेषत: स्पष्ट है जहां सत्संग के उपर्युक्त दोनों संतों की रचनाओं में साधनादि के बम विस्तार की दली के अनुसार किये गए हैं । कविगुलभ प्रतिभा के विचार से इस काल के संतों में केवल पलटू साहब एवं स्वाधू रामतीर्थ के ही नाम लिये जा सकते हैं । संत रामरहस दास रामरहम दास का पूर्वनाम राम रज द्विवेदी था और उनका जन्म सं० १७८२ में किसी समय बिहार प्रांत के अंतर्गत हुआ था । वे एक योग्य पंडित थे और बहुत दिनों तक काशी में रह कर उन्होंने दार्शनिक साहित्य का गंभीर अध्ययन एवं अनुशीलन किया था। उन्होंने कबीर चौरा (काशी) के महंत शरणदास से दीक्षा ग्रहण की थी और बोजक' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ पर पूर्ण रूप से मनन एवं चितन कर उसके आधार पर अपनी पुस्तक पंचग्रंथी का निमणि किया था । वे गया नगर के कबीर बाग में रहा करते । थे । उनकी पुस्तक
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