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संत-काव्य


तथा 'श' के स्थान पर 'स' को, पुरानी प्रथा के अनुसार मान भी लें, फिर भी, केवल व्यंजनों की भी संख्या तैंतीस तक ही पहुँचती है। और ऊँकार को भी लेकर यह चौंतीस तक जाती है । संत रज्जब जी की 'प्रथम बावनी’ तथा ववनी अक्षर उद्धार' में भी यही बात पायी जाती है । संत हरिदास के ‘बावनी योग’ में क्ष’ ‘त्र, ‘ज्ञ ’, का केवल क्षकार मात्र छकार के रूप में आता है और दो अंतिम व्यंजनों का अभाव फिर भी बना रहता है । संत सुंदरदास ने, कदाचित्, सबसे पहले स्वरों का भी प्रयोग आरंभ किया है, किंतु उनकी ‘बावनी’ में 'ऋ’'ऋ’ तथा ‘लृ ‘लृ' के प्रयोग नहीं मिलते और न ‘त्र' का ही समावेश हुआ है जिस कारण अक्षरों की संख्या ऊँकार को लेकर भी, केवल ४८ तक ही पहुँचती है । संत भीषजन की प्रसिद्ध ‘बावनी' में भी सोलह स्वरों के अतिरिक्त केवल तैंतीस व्यंजन हीं मिलते हैं ! उसमें भी ‘क्ष','त्र’, एवं 'ज्ञ' नहीं दीख पड़ते । इस प्रकार उसमें प्रयुक्त सभी स्वरों,व्यंजनों तथा ऊँकार को भी लेकर यह संख्या केवल पचास तक ही जाती है, बावम नहीं होती । इसके सिवाय, यदि ‘बावनी' शब्द को द्विपकदियों की संख्या में भी घटाया जाय फिर भी वह ग्रंथ बावनी’ में केवल ४२ ही आती है और ‘बावन अषरीमें भी . ४६ से अधिक आगे तक नहीं पहुँचती तथा भीषजन की ‘बावनीमें में यह ५४ हो जाती है ।

'बावनी’ शब्द का प्रयोग किसी रचना के अंतर्गत संगृहीत ५२ भिन्न-भिन्न पद्यों के अर्थ में भी बहुधा देखा जाता है, इसके लिए कदाचित् सबसे प्रसिद्ध उदाहरण कवि भूषण कृत शिवाबावनी’ हो सकती है । परन्तु संतों का स्पष्ट उद्देश्य यहाँ पर अक्षरों का क्रमिक प्रयोग करना हीं लक्षित होता है और इस बात का प्रमाण उपर्युक्त ‘बावनी- ग्रंथ' की ही कुछ पंक्तियों के पढ़ने पर मिल जाता है । इसके लिए