पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५३५

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'५२२ से द-काव्य (४) सिब चौरासी नाथ नौ बोरे सब भुलास। बीघे सब भुलाम 'क्ति की मार छूटी। होरा विहिन है ड्ार लिहिन इक कौड़ी फूटी 1 रांड मांड में घुसी जगत इतने में राजी। लोक बड़ाई तुच्छ नरक में अटकी बाजी ॥ झठ समाधि लगाथ फि२ सुभ अंभटका। उहां न पहुँचा क्रोय बीच में सब कोइ अटका है पलटू अठएं लोक में पड़ा दुपट्टा तात। सिध चौरासी माथ न ब7वें सब भुलम ।।४। सिध . . . मनौ८४ सिद्ध और 8 नथ) रांड . . . खसी-=थो ही संतुष्ट हो गए । श्री—अन्यत्र । (५) रन का चंढ़ना सहज है मुसर्किल करना योग | मुसकिल करना योग चित्तको उलटि लगावें । विषय वासना तर्ज प्रान ब्रह्मांड चढ़ावें ।। सधे वायू प्रत्न कुंडली करे उथपना। अष्ट द्वल दल उलष्ट क्ल द ईदस लखमा । गलए पिंगला सोचि बंक के माल चढ़ावें । चार कला को लोहि चन्न घट जाय fबधाई ॥ पलटू जो संजम कड़े कर रूप से भोग। रनका चढ़ना सहज है मुसकिल करसा योग ५ उथपनऊध्र्वमुखी कर दे। fबंध=बेच देवे। (६) आठ पहर निरखतरह जैसे चन्द चकोर ।॥ जैसे चन्द चकोर पलक से टारत नहीं ।