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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५३६

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आधुनिक युग ५२३ बुरी जिह से आगे रहे मन चन्धे मांही । ॥ फिरे कहक दिसि बन्द तेही दिसि को सुछ फरे। जन्दा बाय छिपाय आग के भीतर हेरे में मध्कर तकें न पदम जान स जाइ बहावं 1 दीपा में ज्यों पग प्रेम से प्रान कुंवारे हैं! पल ऐसी प्रीति और परधन चाहै चोर । आठ पहर निरक्षत रखे जैसे अन्य चकोर ।६। इंटे=देखता है, ढ़ता है। (७) सोस उतारे हाथ से सहज असिकी नाह है। सह नासिकी नाह खांड खाने की नाहों । भूछ आलिकी करे लुक में जूती खही ) औोते जो मर जाय करै सा तन की ासा । असिक को दिन रात रां सूली पर बासा ॥ मांन बड़ाई खोय नद भर नाहीं सोना। ति लार रक्त न मांस नहीं नासिक का रोना है। पलटू बेड़े के क्रूफ वे नासिक होने जiहि । सीस उतारे हाथ से सहज असिकी नाह 1७।। असिकी=प्रेम करना। खांड . . . नाहों=शकर जैसी खाने की वस्तु नहीं है । भूठ . . . खन्हों=सांसारिक प्रेम में भी अपमानित होना पड़त: है । बेयूमें =-बेवकूफ, भूख । (८) 'फति से प्रति ज्यों बोरे जलसे बिअरै मीन है। जल से बिछुडे मीन प्रान को तुरत ठंत्रावै। है न कोटि उपाय दूध के भीतर नाव है। ऐसी करें जू प्रीति ताहि को प्रति सराही?