सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५२४ संतकाज्य बिछर से नर जिधे प्रीति वाहू की नही है। टकि पकि न रहे बिछोहा सहा न अड़ाई। नैन औोट जब भ प्रन को संग पerई ।। पलटू हरि से बोबुरे में ना जावें तीन। फनि से अनि ज्यों बीछरे जल से बिछुरे सीन १८. नाब डालने पर भी। विछोहा वियोग। (8) नासिक का घर दूर है पहुंचे कोय ॥ बिरला पहुंचे दिर कोय होय जो पूरा जोगी। बिंद करें जो छार नाद के घर में भोगी । जीते जी मरि जाय झुए पर फिरि उचि जागे। ऐसा जो कोइ होय सोई इन बातम लासं है। पुरखे पुरतें उड़ अन्न बिनु, बस्तर पाली। ऐसे पं ठहरय सोई महबूब बवानी। पलटू नाथु लुटाघही काला मुंह जब होय। नासिक का घर दूर है पहें वें बिरला कोय ।e। बिद . . , छार=काम वासनर पर विजय प्राप्त कर ले । नाद ... भोगी अनाहत शाद का अनुभव करता रहे । सहबूब प्रियतम है (१) बिया फिर मर जाग चादर लगे बोय। चादर ली धोय मैल है बहुत समानी। चल सतगुर के घाट भरा जद निर्मल पानी ॥ चादर भई पुरानि दिनों दिन बार न कीज। - सत संगत में सौंद ज्ञान का साबो दी। टे कमल दाश नाम का कलप लगवै। चलिये चादर ओोढ़ि बहुरि ह भौजल अश्वे ।