एक अन्य संकेत कबीर साहब की ही समझी जाने वाली उस रचना में भी मिलता है जो 'अखरावती' नाम से प्रसिद्ध है। इस ग्रंथ के अंतर्गत नागराक्षरों के स्वरों अथवा व्यंजनों का कोई नियमित क्रम स्पष्ट नहीं है, किंतु, इसके प्रायः अंत में, कहा गया है,
"वा का ज्ञान अरवरावति सारा। बावन अच्छर का विस्तारा॥"[१]
अर्थात् उस अद्वितीय तत्त्व का ज्ञान बावन अक्षरों में व्याप्त है। इसके सिवाय 'बीजक' एवं 'कबीर पंथी शब्दावली' में संगृहीत 'ज्ञान चौंतीसा' नाम की रचनाओं द्वारा प्रकट होता है कि इस प्रकार की रचनाएं, केवल व्यंजनों के प्रयोगानुसार भी लिखी जाया करती थीं, उनमें ॐकार तो रहा करता था, किन्तु 'क्ष', 'त्र' और 'ज्ञ' अक्षर नहीं होते थे। उक्त 'कबीर पंथीशब्दावली' के चौंतीसा (संख्या २) में ॐकार का प्रयोग नहीं है, किंतु अक्षरों को चौंतीस करने के लिए 'क्ष' का, 'छ' के रूप में, प्रयोग दीख पड़ता है और वही रचना कबीर साहब की शब्दावली, (चौथा भाग) में 'ककहरा' नाम से भी दी गई है॥ इसी प्रकार का एक' ककहरा' बाबा धरनीदास ने भी लिखा है, परन्तु गुलाल साहब तथा भीखा साहब ने अपने ककहरों में 'अ', 'इ', 'उ', तथा 'ए' अक्षर भी जोड़ दिये हैं।
अक्षरों के ये प्रयोग केवल नागरी की वर्णमाला तक ही सीमित नहीं हैं। संतों ने उसी प्रकार फारसी लिपि का भी व्यवहार किया है। बारी साहब ने अपना 'अलिफ़ नामा' लिखते समय बतलाया है कि फ़ारसी के "तीसो अच्छर प्रेम के" हैं और यहीं उनका 'बड़ाउपदेस' है। परन्तु फ़ारसी के केवल तीस ही अक्षरों को क्यों महत्त्व दिया गया है, शेष छः कों क्यों छोड़ दिया है, इसका पता नहीं चलता। तीस ही अक्षरों को महत्त्व देने के कारण ही संत बल्लेशाह ने भी अपनी
- ↑ अखरावती, 'कबीर साहेब', पृष्ठ २४; (बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग)