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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५५०

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आधुनिक युग ५३७ हैं जिनसे उनके एक ड्रा आवक होने का स्पष्ट प्रमाण मिलता है । उनका देहांत अनुमानतः ८० वर्ष की अवस्था में सुछ १८९,५ अथवा सं॰ १० ० को जेठ वृदि 3 को हुआ अप्र था। उनके असैर उनके शिष्यों ने उनके नाम पर साहिब पंथ' के प्रचार में प्रयत्न किया था, किंतु अनुयायियों की संख्या अधिक न हो सकी। तुलसी साहब को अपने पूर्व वहीं संतों के नामों पर प्रश्र वलित पंथो बा संप्रदायों में से किसी के शुद्धमतावलंबो होने में विश्वास न था । वे बहुधा कहा करते थे कि कबीर साहब, गुरु नानक देव, दादूदयल ति संतों ने जो सत प्रवर्तित किया था वही सच्चा संतमत था जिसे उक्त पंथों के अनुयायियों ने अपनी नासमझी के कारण भुला दिया और निरों वाह्य विडंबनाओं में फंस गए। वे इसी करण चाहने थे कि ऐसे लोग उसका मूलरूप फिर एक बार जानने की चेष्टा करें और उसी का प्रचार करें। इस दृष्टि से वे एक पक्के सुधारवादी थे और संतमत को पुनः प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने बहुत कुछ प्रयत्न किये । उनको ‘घट रामायण, ‘रत्न सांग ' तथा शब्बली' नाम की रचनाएं वेलबेडियर प्रेस द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं । इनमें विविध प्रकार के दो वरा, उनके आदर्श संतमत का वन तथा प्रचलित पावंडादि का खंडन किया गया पाया जाता है । वे अपने विषय को विस्तार देकर लोगों को समझाया करते थे और ऐसा करते समय भिन्न-भिन्न भाषाओं के प्रयोग भी कर देते थे । वर्णन शैली वैसी गंभीर नहीं थी । पद सावनानुभूति (१) बरसे रस धारा गत् घटा ।।ौक।। उड़ेि घमेंडि बदरी घन गरजबीज कडक मानो अगनि अटा ।4१ा मैं तो खड़ी पिय पर दिवारी महल लखन मम मरान नटा है।२०