सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५३८। संत-फाव्य। गिरत परत गइ अधर अटारीचढ़ि विष नागिनि लगन लटा 1३ नहरी परखि हरद्धि पिड प्यारीनिरखि परषि पद पग न हटा ४। सुख मनि सुन्न जोति त्रिकुटी में, तुलस दरव दिल दगन मिटा |५। अटा-फिरनी है । नटा नाच उठता है । लपन लटा प्रेमा रक्त होकर ।विष नागिनि कुंडलिनी । दगन दा, चिह्न । (२) सुरति सतवलो करत कलोल टेक है। पौंगा साजि सजो पिंड यारीप्रिय रस गांठ बई सब खोल है१। गहिगहि बह गले बिच डाली, धार धरन कोर कीन्ह अडोल ।२॥ झमक चो हिये हेर अटारीन्यारी निधि सुना इक बोख ।३। पछि दिस दिस खोसि किवारीपिय पद परसत भई री चमोल ।४। तुलसी जगत जाल सब जारीडा डगर बेदन की पोल ।५। धारनि -अमृत स्नाव के द्वारा । पछिम बिसा दिसsगगन 'ार की पुर। डारी. . . पोल मार्ग में ही वेदना की नि:सारता सिद्ध कर दी । न्यारी संतगति (३) एरी सिखर पर सुरत समानो, संत लखन पद पार रो ।टेक। जयी जोति होत लखि जानेपांचोइ तत्त पसार रो ११। पासे सार संत गति न्यारोपारे परवि निहार री १२। तुलसी तोल बोल जब पायेकरें कृा निरधार से 1३है। प्रोत्साहन (४) लाज कहा कोरी रो, शंघट खोलो आज ॥टेक। लाजहि लाज अकाज भयो है, सुंदर यह तन काज ॥१। सब तन अंग निहंग निहारे, परदे प्रगट विराज ॥२। स्वामी सब अंतरगति ज़ानेव्याकुल सकल समाज १३ ॥