सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५४० संतकाक्ष्य होल जई सोर घन घोर घट में लख । निरठ मन मोह अनहद बाजे 4२ा। गगन को गिरा पर युति से सेल कर । चहै दिल तोड़ र अरस सन ।।३ । दास तुलसी कहें पछिम के द्वार पर । साहिब घर अजब अदभुत बिरा ।४। झाज =जहाज । झा . . . राजे = एक सच्चे कर्मठ की भांति उस अवर पर जा विराजो । (२) अरे किताब कुरान को खोजले । अलह अल्लाह खुद खुदा भाई ११। कन सक्कान मनजीत मसीत में । जिमी असमान विच कौन ठई २। हर बख्स रोजा निमाज और बाँगरे । खुदा दीदर नहृह खोज पाई।३)। खोजते खोजते खुलक सब खप गया है। टेक ही टेक खुद खुदी खाई !/४५। दास तुलसो कहै खुवा खुद अप है । सहसे निरख दिल देख जाई 1५। (३) अगम इ चौज में मौज न्यारी लखो । अंड बिच निरक बहोड सारा 1१॥ सुरति की सैल नित महल में बस रही। निवरि यट खो गई गगम पारा १२। कल सुकल लख लोक न्यारी गई। गई धर आधर पर सुरति लारण ५३३१