५४२ संत-क्राज्य संतन दिया लखाव, सार सोई सब्व कहदें ॥ तुलसी सत सात लोक से, कटु कुछ द ईयर । सब्र सब्द सब कहत हैं, सध्द सुन के पार 1१। दो दल बल आज्ञा चक्र जो दोनों झूत्रों के बीच में है। । निनार न्थाराभिन्न । (२) यह गत बिरले बू ति, चौथे पद मतसार ॥ चथे पद मनसार, सार संतम के पट्टे । कोटिन करे उपाव, लखन में कबहूं न आधे । लख अलख ओ खलक ख कोइ चिन्ह न पावै । सतगुरु मिलें दयाल भेद छिन में बरसाव ! । तुलसी अगम अपार जो, को लखि पाईं पार । यह गत विरले बूभियाँचौथे पद मत सार हैं२। (३) जग जग कहते जुग , जो न एक बार ॥ जगह न एक बार सार को कैसे पारे । सोबत जुग जुग भये संत दिन कौन जगाधे है॥ पड़े भरम के महि बंद से कौन छुडवें । जो कोई कहे बिबेक ताहि की नेक न भावे ॥ तुलसी पंडित भेष से, सब भूला संसार । जग जग कहते जुग , जमा न एक बार 11३। चौपाई (१) है जीवन मुक्ति पाक में पाये । सो संजम हमरे मन भाव ॥ जीवत भूक्ति बेखिये आंखी। ऐसी बिधि कोइ कहिये भाखी t
पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५५५
दिखावट