पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५५६

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झाधुनिक युग ५४३ एक पहर में मुक्ति बताये । सो सतगुरु मोरे सन भवं ॥ नादि औ अंत पलक में पार्क 1 सारा भेद नजर में प्राध है। जब देखें हम अपने नना । तब माने सतगुरु के बैना ॥ कष्ट करें तप बन को जाने से मरे गये का खोज बताते हैं। ऐसी भूठ बात नह माने । देख पर सुने जो कारें । (घट रनयम से! संजम इंद्रियनिहादि द्वारा किया गया संयम का अभ्यास । (२) स्याशन संग्रह संतन जाना है ये मन कर्भ भर्म भर मामा । त्यागन कर सोई पुनि पावे । फिरि फिरि भोग भाव जम नाई ॥ संग्रह बंधनम जगत बंना । ये दंड भर्म भेद जम जाना । । संतमता बोउ ते न्यारा । संग्रह त्यागत झूठ पसारा। संतन सुरति निरति ठहराई । मन स्थिर कर करि गगन चढ़ाई है। सूति सूर बर आई द्वारे में नभ भीतर चकिं गगन निहार । सुरति सुहागिन सूर सिधारी। नितनित गगन गिरासे स्यारी हैं। (घट रमय से ) यागन न.विषयादि का परित्याग के भइ-होकर, बनकर गिरासे ---अशत्मसात् करती जाती है । (३) अब पंथा पंथी दरसा । पूछे पंथ न जाने गई ॥ पंथ नाम मांग को होई । सो पंथी बूझा नह कोई ॥ रीय बजाय खजरी पीटी । सावत सुख में पड़िगई सीठी ॥ जो संतन का सबद विचारा । सूयूथ बार श्रत पारा है। सब्द संधि कछ और बतावें । यह नह समझ सोध मन लाव गुरु बानी संतन की बसें । निर्मल नैन आदि से सूने .