पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५४४ संतकाव्य । गुरु चेला मिलि पंथ चलाया। संत पंथ को रह न पाया । यदि लेखा देखा उन नाहों । पूजा को उनका मनचाही । सीटी =शिकमपपड़ी। (नसागर से) साखी अंबर की ग्रांखी नहीं, बाहर की गई टि । बिन सप्त गुरु औट बहैकभी न बंधन त्रुटि 1१॥ उत्तम श्र चांडाल , ऊँह दीपक उजियार। तुलसी पते पतंग के, सभी जोत इक सार १२। मकरो उत तार से, पुति गहि चढ़त जो तार । जाकर जांसों मन रम्यो, पहुंचत लगन बार १३।। सूरज बस अकास य, कि रन भूमि प बास । जो अकास उलटे चले, सो सत गुरु का बास ५४। । जल मिसरी को ना काहै, सर्बत सम कहा । यों पुल के सत संग करंकाहे भर्म समाय ५५।॥ सुरत सिखर अंदर खड़ीची जो दीपक बार । मातम रूप नकास का, देखें बिभल बहार ।६। तुलसो मैं जो त, भजे दीन गति होय । गुरु नवं जो सिष्य को, साध कहाई सोय १७। मन तरंग तन में चलेअठो पहर उपाध । था।ह की पार्वे नहीं, छिन छिन छल परभाब ८। जल औला गोला भयो, फिर धुलि पामी होय । संत चरन गुरु ध्यान से सुन लि जावे सोय थे। सूप ज्ञान सज्जन गहैकूकर देत निकार। सार हि अंदर , पल पल करत विचार 1१०। भक्ति भाव ब के बिना, ज्ञान उद्दे नह होय । बिना ज्ञान प्रान को, काढ़ सई नह कोय 1११।