पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५४६ संत-काव्य अपने अज्ञान में जगत सब हो रचे, सर्व को संहार कर अप अबिनाती है । मिथ्या परपंच बेखि ःख जिन आमि जिय देवन को देख कुंतो सब सुख रसी है ? जीव गज ईस होय, माया में प्रभा से जूही , जैसे रज् सांप सीय रूप लें प्रभास है ।१। रूप =चांदी । साखी अंतर बाहिर एकरस, जो चेतन भर पूर। विभु नभ सम सो ब्रह है, नहि नेरे नह दूर ! ?" ब्रह्मरूष अईि अहवितताकी बानो बेद । भाषा अथवा संस्कृतकरत भेद भ्रम छेद है।’ । सत्यबंध की जानने, नहीं निवृत्ति संयुक्त । नित्य कर्म संतत कर, भयो चहै जो मुक्त 1३। नमन करत ज् पबन तें, सूको पीपर पाल । गोष कर्म प्रारब्धनेक्रिया करत बरसात है। बिं-=इयायक ।नहि . . . .दूर-= उसके लिए निकट बा दूर का कोई प्रश्न नहीं है । अहि =है । करत. . . छेद =संशय का निराकरण । संत शिवदयाल सिंह ( स्वामीजी महाराज ) लाला शिवदयाल सिंह 'राधास्वामी सत्संगके मूल प्रवर्तक थे और वे ‘स्वामीजी महाराज' कहला कर प्रसिद्ध थे। उनका जन्म आगरा नगर के पन्नी गली मुहल्ले में सं० १८७५ की भादो बदी ८ को एक खंत्री परिवार में हुआ था । उनके पिता पहले नानक पंथ और फिर तुलसी साहब के ‘साहिब पंथके अनुयायी थे और उनके परिवार