उन्होंने भी उसी प्रकार अमावस्या से लेकर पूर्णिमा तक सोलह नाम दिये हैं। सहजोबाई ने अपनी एक ऐसी रचना का 'सोलह तिथि निर्नय' नाम दिया है और कहा है,
"ज्ञान भक्ति और जोगकूं, तिथि में करूँ बखान"[१]
अर्थात् इन तिथियों के द्वारा में ज्ञान, भक्ति एवं योग का वर्णन कर रही हूँ। संत हरिदास ने इस प्रकार की दो रचनाएँ की है जिनके नाम उन्होंने क्रमशः 'बड़ी तिथियोग' और 'लबुतिथियोगी' रखे हैं। इनमें से पहली में छः-छः पंक्तियों के तथा दूसरी में केवल दो-दो पंक्तियों के सोलह-सोलह पद आये हैं। इसी प्रकार संत रज्जब जी ने सातवारों के नाम का प्रयोग करके उपदेश दिये हैं। सहजोबाई ने उनके द्वारा 'हरि का भेद' बतलाया और संत हरिदास ने अपनी साधना के निजी अनुभव का वर्णन किया है। सहजोबाई की एक विशेषता यह लक्षित होती है कि उन्होंने रविवार की जगह मंगलवार से दिनों का आरंभ किया है। इस प्रकार सप्ताह का अंत सोमवार में दिखलाया है जितका कोई स्पष्ट कारण नहीं जान पड़ता।
समय के अनुसार की गई संतों की रचनाओं में 'बारह मासा' को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सिखों की मान्य पुस्तक 'आदिग्रंय' में इस प्रकार की रचना को 'बारहमाहा' कहा गया है जिसमें गुरु अर्जुन देव ने चैत से फाल्गुन तक के नाम लेकर उनमें किये जाने वाले कामों के विषय में विविध उपदेश दिये हैं। परंतु इसी प्रकार की अपनी एक रचना बारहमासों द्वारा संत सुंदरदास ने इस प्रकार का विरह-वर्णन किया है जो एक साधारण विरहिणी नायिका की ओर से भी पूर्णतः उपयुक्त कहा जा सकता है। इन दोनों संतों के बारह-मासा चैत से आरंभ होते हैं, किंतु संत गुलाल साहब एवं भीखा साहब ने। बाहरमासे लिखे हैं वे आषाढ़ मास से चलते हैं। इन दो में संतमत
- ↑ सहज प्रकाश, पृष्ठ ४५