पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५६६

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श्रानिक युग ५५ भारण रोक भुलाबत सब को 1 कला दिखावत ज्यों नटवा है।४। घूम धाम कर फिर बगदाबत । ठहत देत न काहू तटव 13५। ऐसा छल्लिया कान्ह न सने 1 छोड़त नाहीं निज हटबा ६।' गरु बिन कन बचावे याते । बोल सुनाबें बुन लुटबा १७ राधास्वामी खेली लीला । दूर हटाया अब भटबा ५८। श्यतम काल । पटवा=अवरण । ब गदाधस रास्ते से भटका देता है ' हटबा-स्वभाव । छंटवा-चुनी हुई । चेतावनी (११) घट भीतर तू जाग री, हे सुरत पुरानी । बिना देश झाँकत रहों, सब मर्म भुलानी ५१14 काल दशव सरत रहा, पर न न चितनी । अब सतगुरु की मेहर से, मौसम बदलामी ।।२है। नरदेही पाई सहज, सतसंग समान । सुरत घाट अब पाइया, धुन शब्द पिलानी ।३॥ यह मरण संतन कहा, पंडित नह जानने । जिन यह मारग पाइया, सो छूट खानी I४। श्याम कज के घx से, सूरत अलगानी । थ पद में जा मिलो, जहां अचरज यानी 1५ पंचम 5ष्टम पाय के, राधास्वामी जामी । भग सुहागिन पाइया, को करे बभनी ६। चितानी=त सकी । मौसम =स्थिति, दशा । सुरत की शुद्धि (१२) गुरु घाट चलो मन भाई । सुरत चयरिया लव धुवाई ११। लेवा साबन दर्शन संजन । प्रेम का नीर भरई ।।२५हैं. बंचन की रेह भाव की भाठी। बिरह की असिन जरई ।।३।' भधित नबी आँह निस बिन बहती । मल मल तामें सैल गवई ।४।।