संबंधी कुछ सिद्धांतों के वर्णन पाये जाते हैं, किंतु संत गुलाल साहब की रचना में कहीं कहीं प्रकृति की छटा भी दर्शनीय है। संत पलटू साहब ने बारहमासपरक एक अपने पद में विरह का वर्णन संत सुन्दरदास की ही किया है। किन्तु उसके अंत में उनकी विरहिणी को 'सुन्न मंदिल' में 'इक मूरति' की झलक भी मिल गई है, संत तुलसी साहब ने दो बारह-मासे लिखे हैं जिनमें से पहला लावनी में है और दूसरा दोहों में। पहले के अंतर्गत विरहिणी की दशा के साथ-साथ संतमत की साधना का भी समावेश कर दिया गया है, किंतु दोहों में केवल संतमत का सार बतलाया गया है। इस दोहे वाले बारमास की एक यह भी विशेषता है कि इसका आरंभ सावन मास होता है। संत शिवदयाल का बारहमासा इन सभी से बड़ा है और उनके 'सार बचन' ग्रंथ के लगभग ५० पृष्ठों में आता है! उसके अंतर्गत संसारी जीवों की दशा का वर्णन कर उनके गुरूपदेश एवं तदनुसार समाधान द्वारा संभलने की चर्चा विस्तार के साथ की गई है और प्रसंगवश काया के भीतर वर्तमान द्वादश कमलों का परचय भी दिया गया है। इन द्वादश कमलों तक अपनी चेष्टाओं द्वारा पहुँचने वाले को ही इन्होंने 'संत सुजाना' बतलाया है तथा ऐसे ही संतों के मत को सर्वोच्च स्थान भी दिया है।[१] संत शिव दयाल के शिष्य संत सालिगराम जी ने भी 'बारहमासा' लिखा है जो उससे छोटा है। 'सुरत' की उर्ध्वयात्रा उसका प्रधान विषय
संतों की रचनाओं का एक अन्य विभाजन उनमें संगृहीत पदों की की संख्या के अनुसार किया गया भी मिलता है। संत कबीर साहब की प्रसिद्ध 'रमैणी' ग्रंथ में 'सत पदी, 'बड़ी अष्टपदी', 'दुपदी', 'अष्टपदी', 'बारह पदी' तथा 'चौपदी' रमैणियों का संग्रह है। परंतु इनमें से
- ↑ "सार बचन', पृष्ठ ५३-४०२।