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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५७७

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५६४ सतर्कीय सतगुरु प्रेम भाँज रहे सिसबिन, नया नया भाव और उमंग जगाय, गुर्की सेवा लाख ३२। होय हुशियार बलत गुरू सारण, घट में विमल बिलास बिखाय गुरु ध्यान धराय ।।है।। तन मन वैन चरम पर वारत, सन ऑमें सूरत गगन चढ़य 'ध शब्द जगाय एt४। करम काट गुरु बल चली , साथी दल भी टूर पराय, क्या काल गिरय है?५। ऐसी सुर्त गुरु चरन अधीनी, सूर होय संत शब्द ससाय बुन बीन बजाय १६है। मेहर हुई प्रखर सिधारी, राधास्वामी दिया मिज घर पहुंचाय, लिया गोद बिठाथ ७। झोना सूक्ष्म, कठिन । अरी अंतध्र्युनि (२०) बल से मेरे प्यारी मुरलिया, तरस रहो मेरी जान मुरलिया है१। सुन सुन धुन मन उगत घट में, और शिथिल हुए शान मुरलिया ।२१। रस भरे बोल सुने जब तेरे, गया कलेजा छान मुरलिया ।३। तन मन की सब कुछ बिसारीपुनम में चित्त समान मुरलिया ४है। राधास्वामी दया अधर चढ़ आईसतपद दास दिखान मुरलिया १५॥ छाम गया भेद दिया, वार-पार हो गया, व्याप्त हो गया। रचना रहस्य (२१) गरु प्यारे चरन रचना की जान ।।टेक। । अनादि धार चेतन जो निकली, उसने रची सब रचना शान क१। बही धार गुरु चरन पिलामो, वही पड ब्रह्मांड समान १२॥ उसी धार का सकल पसारा, बोही धुन औ नाम कहान ।३।