पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५८५

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५७२ संत-कांक्ष्य बंग-इड़ा नाम की उपयुक्त योगनाड़ी अथवा स चार स्थित चंद्रा कार अमृत कूप जिसकी चर्चा पर की जा चुकी है ? त्रिकुटी -—भूमध्य में स्थित वह बिंदु जहां पर इा, पिंगला एवं । सुषुम्ना द्योग नाडियों का मिलन होता है और जिसे इसी कारण त्रिवेणी' भी कहा जाता है । योगसाधना में इस स्थल को कई दृष्टियों से बड़ा महत्व दिया गया है । दसम दुआर-—दशामद्वार अर्थात् अंकों के दो छिद्र, कान के दो छिद्र, नाक के बो छिद्र, मुख, गुदा एवं लिग के अतिरिक्त, ब्रह्मरंध्र नाम का एक दसवां छिद्र जो शिर के भीतर शीर्षस्थान में वर्तमान है जिसकी ओर शक्ति की साधना उन्मुख की जाती है । निरति--परमात्मा के साक्षात्कार का आनंद जो पूर्ण तन्मयता के कारण अनुभव में आता है । मिरबान-—निवणि अर्थात् मोक्ष की वह चरमावस्था जब आवा गमन के चक्र का सदा के लिए अंत हो जाता है । परचा--परिचय के ढंग से प्राप्त किया हुआ स्वानुभूति विषयक शान । पूर्ण परिचय, आत्मज्ञान, परम तत्वोपलब्धि । प्रबन-प्राणायाम द्वारा परिष्कृत शरीरस्थ वायु । पिंगला- मेरु दंड में वर्तमान वह योगनाडी जो उसकी clहिनी । ओर से उठकर सुषुम्ना में लिपटती हुई अपर की ओर चली जाती है और जो अंत में नाक की दाहिनी ओर समाप्त होती है । इसको सूर्यनाड़ी. अथवा यमुना नदी भी कहते हैं । प्राणायाम-प्राणों की वह साधना जिसके द्वारा बास ट्ष प्रश्वास की गतियों को संयमित किया जाता है । इसकी तीन वृत्तियां हैं जो पूरक, कुंभक ए. रेचक नामों से अभिहित की जाती हैं और जिनके द्वारा क्रमश: बाहर के वायु को नियमित ढंग से भीतर ले जाना, उसे दरादि में भर देना तथा भीतर की वायु को बाहर निकालना सिख