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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५८६

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परिशिष्ट ५७३ किया जाता है । इन क्रियाओं और विशेषकर कृभक क्रिया की ‘साधना से प्राणों का संयमन हो जाता है और चित्त की बहु मुखी वृत्तियां निरुद्ध हो जाती हैं । वंदनाल-—वह टेड़ा मार्ग जि से होकर सुषुम्ना नाड़ी त्रिकुटी के कुछ और आमें अग्रसर होती है । वह अत्यंत सूक्ष्म एवं बीहड़ सा समझा जाता है और उससे प्रवाहित होने के कारण स्वयं सुषुम्ना को भी वहां 'इसी नाम से पुकारते हैं । बहत्तर कोठे योग शास्त्रीय शरीर रचना विज्ञान के अनुसार काया के भीतर ७२ कोठे बा क्षेत्र वत्मान हैं । सनसबर--उपर्युवतअमृत कूप अश्रथा अमृत कुंड जिसके शुभ जल में ‘सुरति’ मगन हो जाती है ? सुझा—हठयोग द्वारा चिह्नित विशेष प्रकार के अंगन्यास जो म्लेचरी भूचरीचाचरीगोचरी और उन्मूनी मामों से प्रसिद्घ हें । मेर-मेरुदंड नाम की पीठ के बीच की हड्डो जिसे रीड़ भी कहा जाता है । शब्द--वह शब्द जो अनहद के रूप में शरीर के भीतर सुन पड़ता है। 'और जो परमतस्य कई प्रो भी समझा जाता है । ‘श ब्लू’ नाम बहुधा उस उपदेश अथवा जुगति को भी दिया जाता है जिसे सद्गुरु अपने शिष्य को प्रदान करता है । शून्य- देखिए 'गगन' । बढ़-चक्र-—उपक्स रीढ़ वा मेड की रचना छोटे-छोटे अस्थि ‘खंड़ों के आधार पर की गई बतलायी जाती है जिनके विविध संधिस्थलों पर ध्य नाड़ियों द्वारा निर्मित कतिपथ व से बन गए हैं। इन चत्रों की स्थिति सुषुम्ना से होकर ऊपर की ओर अग्रसर होने वाली कुंडलिनी के मार्ग में पायी जाती है और इनकी संख्या बहुत है । किंतु इनमें से मुख्य छः ही कहे जाते हैं जिन्हें नीचे से ऊपर की प्रगति