पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५८७

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५७४। संकाय के अनुसार क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा कहते हैं । इनकी रचना कमल के फू लों जैसी जान पड़ती है और इनके दलों की संख्या, इनके उक्त क्रमानुसार, चार, छ:, दसबारह, सोलह एवं दो की समभ पड़ती है तथा इनकी स्थिति भी उसी प्रकार गुदामूललिंगमूल, नाभि, हृदय, कठ एवं त्रिकुटी के समानांतर है । कुंडलिनी शक्ति इन छहों चक्रों को क्रमश: बेधती हुई आगे बढ़ती और उसी क्रम से साधना में उत्कर्ष भी बढ़ता जाता है । सुखमन सुषुम्ना नाम की योग नाड़ी जिसकी स्थिति मेरुदंड में है और जो इड़ा एवं पिंगला नाम की दो अन्य वैसी ही नाड़ियों के मध्य में नीचे से ऊपर की ओर बढ़ती हुई त्रिकुटी के निकट उन दोनों को भी अपने में मिला लेती है और फिर आगे सहस्त्रार के कुछ इधर लुप्त होती है, इसको सरस्वती नदी भी कहते हैं और इसी से होकर कुडलिनी शक्ति प्रवाहित होती है । सुरिन--नाभस्मरण की साधना जो वस्तुतः अनाहत नाद के श्रवण को ही लक्ष करती है और जो सुरति-शब्द संयोग का कारण बनकर संतों के लिए आत्मोपलब्धि में सबसे प्रधान सहायक है। सुति--जीवात्मा अथवा परमात्मा का बहु प्रतीक जो उसकी स्मृति बा प्रतिनिधि के रूप में मनुष्य के भीतर वर्तमान है । सुरति का संतों ने अपने पति परमात्मा से बिछुड़ी हुई दुलहिन के रूप में भी वर्णन किया है । वह उससे मिलने के लिए आतुर हो नामस्मरण की सहायता से अनाहत शब्द के साथ संयोग कर लेती है जिससे अंत में ' उसे तदाकारता की उपलब्धि हो जाती है । सूर्य—पिंगला नाम की उपर्युक्त योगनाड़ी अथवा मूलाधार स्थित एक शक्ति जो ऊपर से प्रवाहित अमृत नाब को सोख लेती है। हंस -जीवात्मा जो नवहार के पिंजड़े (इस शरीर) में अपने को वह पाता है ।