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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/६०

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भूमिका

उन्होंने सर्वत्र केवल इसी बात के लिए प्रयत्न किये है कि हमारे सिद्धांतों एवं साधनाओं का स्पष्टीकरण ठीक-ठीक हो जाय। इसके लिए उन्होंने किसी विशेष प्रकार की रचना प्रणाली का ही अनुसरण करना आवश्यक नहीं समझा। जिस किसी भी रचना-शैली को उन्होंने अपने समय में प्रचलित वा परिचित पाया उसी को अपना कर अपने उद्देश्य की सिद्धि में वे लग गए। इसी कारण, हम देखते हैं कि जिन-जिन ऐसे सावनों को उन्होंने अपने लिए स्वीकार किया है उनके मौलिक रूपों की ओर उन्होंने विशेष ध्यान नहीं दिया है और न उनके नियमों को ही ठीक-ठीक निबाहा है। वे सदा अपने प्रतिपाद्य विषय को ही अधिक महत्त्व देते रहें हैं, जिस कारण उनकी कृतियों का बाह्यरूप कभी संभाला नहीं जा सका है। 'बावनी' नाम की उपर्युक्त कबीर-कृति के एक अन्य नाम 'बावन अषरी' के कारण उसे पढ़ने वाले बहुधा आशा करते हैं कि उसकी रचना नागरी के सभी सोलह स्वरों तथा सारे छत्तीस व्यंजनों के अनुसार की गई होगी। किंतु उसके लेखक द्वारा दिये गए कुछ संकेतों के आधार पर उसके विषय में इस प्रकार का अनुमान करना भी आवश्यक हो जाता है कि उक्त 'अषरी' शब्द का अभिप्रायः यहाँ किसी वर्णमाला के अक्षरों से न होकर उस अक्षर वा अविनाशी तत्त्व से है जो उन अक्षरों में वर्त्तमान कहा जा सकता है।

संतों की प्रायः सभी रचनाएँ पद्यों में ही पायी जाती हैं। गद्य-ग्रंथों की संख्या उतनी अधिक नहीं है। 'गोरख-बानी' नाम के संग्रह को देखने से विदित होता है कि गद्य लिखने की परंपरा नाथपंथियों के समय से रही होगी। उसके 'गोरष गणेश गुष्टि', 'महादेव गोरष गुष्टि', 'सिस्ट पुराण', 'चौबीस सिद्धि', 'बत्तीस लछन', तथा 'अष्टर' 'चक्र' नामक परिशिष्ट के प्रकरणों में गद्य स्पष्ट दीख पड़ता है और यह बात उसके मूलभाग की 'रोमावली' नामक रचना में भी पायी