जाती है। किन्तु उनमें लक्षित होने वाले गद्य के रूप को हम शुद्ध, निर्दोष वा अविकृत भी नहीं कह सकते और न उसके रंगढंग में पद्य से बहुत अन्तर जान पड़ता है। इन रचनाओं में प्रयुक्त वाक्य अधिकतर तुकों का सहारा लेते हैं और इनमें आये हुए प्रश्नों में क्रियाओं का अभाव लक्षित होता है। इसके सिवाय इनमें दिये गए विवरणों के उल्लेख भी संकेतवत् ही किये गए हैं और वे एक दूसरे की गति का अनुसरण करना चाहते हैं। गद्य का कोई शुद्ध रूप उस समय की कदाचित् किसी प्रकार की भी हिंदी रचनाओं में नहीं पाया जाता। कबीर साहब के समय से संतपरंपरा का आरंभ हो जाने पर तथा उसके बहुत काल पीछे तक भी, हमें संतों की गद्य रचनाओं के उदाहरण नहीं मिलते। कहते हैं कि संत बाबालाल एवं संत प्राणनाथ के समय, अर्थात् विक्रम की १७ वीं शताब्दी के चतुर्थं वरण से लेकर उसकी १८ वीं शताब्दी के मध्यकाल तक, संतों की गद्य रचानओं का आरंभ हो गया था। किंतु अभी तक ऐसे ग्रंथों का ही कहीं पता नहीं चलता। १८ वीं शताब्दी के अंतिम चरण के लगभग की समझी जाने वाली कुछ रचनाएँ शिवनारायणी संप्रदाय की मिलती हैं, किंतु उनके रूपों में भी कुछ हेरफेर हो गया है। कभी-कभी ऐसा अनुमान होता है कि वे कुछ और पीछे लिखी गई भी हो सकती। यही बात हम अन्य पंथों की ऐसी अनेक रचनाओं के संबंध में भी कह सकते हैं। संतों के गद्य साहित्य का वास्तविक आरंभ इसी कारण, विक्रम की १९वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध काल से ही होता है जब कुछ संत लेखक अपने- अपने मान्य ग्रंथों एवं अन्य प्रसिद्ध रचनाओं पर भी अपने भाष्य एवं टीकाएँ रचने लगते हैं और साधु निश्चलदास जैसे कुछ लोग स्वतंत्र रचनाओं की ओर भी प्रवृत्त हो जाते हैं। उस काल से पहले संतों के पत्र व्यवहार तक संभवतः, पद्य में ही होते थे जैसा कि जगजीवन साहब के
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