कुछ उपलब्ध पत्रों से भी जान पड़ता है। संतों के गद्य साहित्य की अभिवृद्धि में इधर कबीर पंथ, दादू पंथ, रामसनेही संप्रदाय और विशेषतः राधास्वामी सत्संग का हाथ रहा है। वर्त्तमान रचना-पद्धति के प्रभाव में आकर अन्य ऐसे लोगों ने भी इधर बहुत कुछ किया है, 'सत्संग' के महर्षि शिव लाल ने साधारण प्रवचनों के अतिरिक्त उपाख्यानों, कहानियों, जीवनियों तथा आलोचनाओं, आलोचनात्मक ग्रंथों की भी रचना की है और सामयिक साहित्य के प्रकाश में भी भाग लिया है। उस पंथ के सर आनंदस्वरूप की नाटक रचना भी उल्लेखनीय हैं।
संत-काव्य
काव्य का आदर्श
संत-साहित्य की उपर्युक्त संक्षिप्त रूपरेखा से भी स्पष्ट है कि संतों ने उसका निर्माण करते समय अपना ध्यान काव्यकौशल की ओर नहीं दिया था और न उसमें कभी वे पूर्ण रूप से सावधान ही रहे। उन्होंने अपने विचारों की अभिव्यक्ति एवं सिद्धांतों के प्रचारार्थ ही कुछ रचनाएँ प्रचलित शैलियों के अनुसार, प्रस्तुत कर दीं। इनकी संख्या में क्रमशः वृद्धि के होते आने से इनका कलंदर एक विशाल संत-साहित्य के रूप में परिणत हो गया। ये रचनाएँ मनोरंजन के लिए नहीं की गई थीं और न इनका उद्देश्य कभी किसी प्रकार के 'यश' वा 'धन' का उपार्ज़न ही रहा। इनके रचयिताओं ने अपने सामने 'कविता कविता के लिए' का भी आदर्श नहीं रखा और न अपनी उन्मुक्त कल्पना के प्रभाव में विविध भावनाओं की सृष्टि कर एक अपना मनोराज्य स्थापित करने की कभी चेष्टा की। उनकी व्यक्तिगत 'स्वानुभूति' में विश्वजनीन अनुभूति की व्यापकता थी और उनके आदर्श पद की स्थिति ठेठ व्यवहार से कहीं बाहर न थी। अपनी रचना के माध्यम को भी इसी