कारण, उन्होंने उसके विषय से अधिक महत्त्व कभी नहीं दिया और न उसके शब्द एवं शैली में चमत्कार लाने के पीछे, उसके भावसौंदर्य के प्रति वे कभी उदासीन हुए। इसके सिवाय, अपने उच्च से उच्च एवं गंभीर से गंभीर भाव को भी वे सदा सर्वसाधारण की ही भाषा में व्यक्त करते आए और उन्हीं के दृष्टांतों एवं मुहावरों द्वारा उन्होंने उसका स्पष्टीकरण भी किया।
संत कबीर साहब के समसामयिक मैथिल कवि विद्यापति एक अच्छे पंडित और साहित्य थे और उन्होंने कई काव्य रचनाएँ भी की थीं। अपने हिंदी पदों द्वारा उन्होंने नायिकाओं की वयःसंधि आदि का वर्णन बड़े सुन्दर ढंग से किया है और अपनी काव्यशक्ति का उन्हें बहुत बड़ा गर्व है। वे अपने काव्य की भाषा की प्रशंसा में एक स्थल पर कहते हैं,
- "बालचन्द विज्जावर भासा, दुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा।
- श्री परमेसर हर शिर सोहइ, ईणिच्चइ नागर मन मोहइ॥"[१]
अर्थात् द्वितीया का चंद्रमा और मेरी काव्यभाषा दुर्जनों के हास्य का विषय नहीं हो सकती, क्योंकि चंद्रमा शिव के मस्तक पर शोभा देता है और मेरी भाषा नागरिकों का मन मोह लिया करती है। वे काव्य के लिए भाषा की सरसता को ही सदा अधिक महत्त्व देते जान पड़ते हैं, क्योंकि इसके आगे वे फिर यह भी कहते हैं,
- "का परमोधञो, कमण मणावञो,
- किमि नीरस मने रस लए लावञो।
- किमि नीरस मने रस लए लावञो।
- जइ सुरसा हो सइ सम्सु भासा,
- जो बुज्झइ सो करिह पसंसा॥"[२]