अर्थात् मैं किस प्रकार प्रबोध कराऊँ, किस प्रकार जतलाऊँ और किस प्रकार नीरस मन में रस भर दूँ। यदि मेरी भाषा सुरस होगी तो जो कोई समझेगा वही मेरी प्रशंसा करेगा। परंतु संत कबीर साहब के लिए इस प्रकार के 'कविकर्म' का कभी कोई महत्त्व न था। वे 'राम' के उद्देश्य से किये गए कार्य को ही उचित समझते थे; उससे विहीन संसार के किसी भी धंधे को 'कुहेरा' के समान निःसार मानते थे। इस कारण काव्यकौशल में प्रवृत्त होना भी उनके लिए वैसा ही व्यर्थ काम है जैसा हिंदुओं का मूर्तिपूजा में लीन रहना, मुसलमानों का 'हज' की यात्रा किया करना, योगियों का जटा बाँधे फिरा करना तथा कापड़ियों का जल लाने के पर्वत की चढ़ाई करना आदि कहे जा सकते हैं। वे कहते हैं,
"राम बिना संसार धंध कुहेरा,
सिरि प्रगट्या जम का पेरा॥टेक॥
देव पूजि पूजि हिंदू मूये, तुरक मूये हज जाई।
जटा बाँध बाँधि योगी सूये, इनमें किनहूं न पाई॥
कवि कविनैं कविता मूये, कापड़ी केदारौ जाई, आदि।[१]
इसी प्रकार संत सुंदरदास ने भी जो स्वयं एक पंडित और काव्य-निपुण व्यक्ति थे, विद्यापति की शृंगारमयी 'पदावली' जैसी रचनाओं को विषतुल्य ठहराया था। वे 'रसिक प्रिया', 'रसमंजरी' एवं 'सुंदर शृंगार' की निंदा करते हुए कहते हैं,
"रसिक प्रिया रस मंजरी और सिंगारहि जानि।
चतुराई कहि बहुत विधि विषैं बनाई आँनि॥
विषैं बनाई आनि लगत विषयिन कौं प्यारी।
जागै मदन प्रचण्ड सराहैं नखशिख नारी॥
- ↑ 'कबीर ग्रंथावली' (काशी नागरी प्रचारिणी सभा), पद ३१७, पृष्ठ १९५