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संत-काव्य

ज्यों रोगी मिष्ठांन पाइ रोगहिं विस्तारै।
सुन्दर यह गति होइ जुतौ रक्षिक प्रिया धारै॥५॥
रसिक प्रिया कै सुनत ही उपजै बहुत विकार।
जो या माहीं चित्त दे वहै होत नर ष्वार॥
वहै होत नर ष्वार बार तौ कछुव न लागै।
सुनत विषय की बात लहरि विषही की जागै॥
ज्यौं कोई ऊंघै हुती लही पुनि सेज बिछाई।
सुन्दर ऐसी जाँनि सुनत रसिक प्रिया भाई॥६॥[१]

अर्थात् 'रसिक प्रियादि' काव्य रचनाओं को कवियों ने बड़ी निपुणता के साथ विष रूप में प्रस्तुत किया है और वे विषयी जीवों को प्यारी लगती हैं। उन्हें सुनते वा पढ़ते ही वे नारियों के नख-शिख की प्रशंसा करने लगते हैं और उनमें कामोद्दीपन उसी प्रकार हो जाती है जिस प्रकार मिष्ठान्न खाने पर रोगियों के रोग में वृद्धि हो जाती है। इसके सिवाय 'रसिक प्रियादि' का श्रवण करने मात्र से मनोविकार उत्पन्न होते हैं और जो कोई उधर आकृष्ट होता है वही चौपट हो जाता है। विषय की बातों को सुनते ही भीतर विष की लहरें उठने लगती हैं और उसे वैसा ही जान पड़ता है जैसा ऊंघने वाले को सोने के लिए कोई बिछी-बिछाई सेज मिल गई हो।

अतएव, संतों के अनुसार आदर्श काव्य वही हो सकता है जिस में कविता निरुद्देश्य की गई न हो। उसका विषय 'राम' से रहित न होना चाहिए और उसमें शृंगारादि विषयों की मनोविकारवर्द्धक एवं विष भरी बातों का समावेश भी न होना चाहिए। संत कवि इस बात में दूसरों से सहमत नहीं जान पड़ते कि काव्य की रचना यदि उप-

  1. 'सुन्दर ग्रन्थावली' (द्वितीय खण्ड), पृष्ठ ४३९-४०।