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संत-काव्य

सुखमय अनुभव में हम देखते हैं कि जिस समय हमारे ऊपर उसके कुछ की मात्रा अधिक हो जाती हैं और अनुभूत वस्तु में तन्मयता का भाव ग्रहणकर जब हम आनंदित हो उठते हैं तो उसे उपयुक्त शब्दों में प्रकट करते समय हमें बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। हम उसे स्पष्ट करने का प्रयत्न बार-बार करने लगते हैं। एक ही बात को कई ढंग से कहने लग जाते हैं और बीच-बीच में न कुछ संकेत भी करते जाते हैं, किंतु फिर भी इसमें हमें संतोष नहीं हो पाता। अपनी भाषा हमें उस समय पूरी सहायता करती हुई प्रतीत नहीं होती और कई बार वह अस्पष्ट एवं विकृत तक बन कर रह जाती है। उक्त वस्तु जब इंद्रियगम्य रहा करती है तब तो हमें भाषा की सहायता कुछ न कुछ मिल भी जाती है, किंतु जब हम किसी भावना के अनुभव की बातें करने लगते हैं तो हमें उस साधन का भी पूरा सहारा उपलब्ध नहीं होता। राम, साहिब, सत्य वा परमतत्त्व जिसका आत्मस्वरूप में अनुभव करने की बातें बहुधा संतों की रचनाओं में आया करती हैं। उनके अनुसार, एक इंद्रियातीत वस्तु है जिसकी केवल भावना का ही अनुभव किया जा सकता है। उसका वर्णन भी केवल प्रतीकों के आधार पर ही हो सकता है, इन प्रतीकों का भी आधार मूलतः इंद्रियगम्य वस्तुएँ हो बना करती हैं। ऐसी दशा में उन दोनों में पूर्व सामंजस्य की भी एक समस्या अलग खड़ी हो जाती हैं। संतों ने ऐसे प्रतीकों के प्रयोग बार-बार किये हैं और इस प्रकार हमारे लिए कुछ ऐसे चित्रों का निर्माण करते आए हैं जो उनकी उक्त भावना का न्यूनाधिक अनुकरण कर सकें। भाषा उन्हें इस कार्य में पूरी सहायता स्वभावतः नहीं कर पायी है। इसके लिए उनके जितने ऐसे प्रयोग हुए हैं वे अधिकतर दोषपूर्ण हो गए हैं संतों ने जहाँ-जहाँ स्वानुभूति से भिन्न-भिन्न विषयों के वर्णन किये हैं वहाँ वहाँ उनकी