प्रतिभा तथा अभ्यास के अनुसार भाषा, छंद एवं शैली में भी उन्हें बराबर सफलता मिलती गई है। वहाँ पर उनकी योग्यता स्पष्ट ही दीखती है।
रहस्यवाद
स्वानुभूति की अभिव्यक्ति में उक्त प्रकार की अस्पष्टता आ जाने के कारण कवि की रचना बहुधा रहस्यमयी बन जाती है। उसके श्रोता वा पाठक के लिए अपने पूर्व परिचित प्रतीकों के भी प्रयोग एक अपूर्व अनुभव के विधायक बन जाते हैं। 'स्वानुभूति' की दशा इस प्रकार की स्थिति है जिसमें हम अपने आपको पाकर भी वस्तुतः सर्वथा भूल से जाते हैं। उस समय किसी दूसरे को उसके साथ परिचित कराने की हममें कोई शक्ति नहीं रह जाती। 'बृहदारण्यक उपनिषद्' में इस विचित्रदशा का वर्णन किसी प्रिया एवं प्रियतम के गाढ़ालिंगन के प्रतीक द्वारा किया गया है और इसे सभी अन्य अनुभवों को दवा देने वाला भी बतलाया गया है। वहाँ कहा गया है।
"तद् यथा प्रिया स्त्रिया सम्परिष्वक्तो न वाह्यं किञ्चन वेद नान्तर- मेवायं पुरुषः प्राज्ञेनात्मना सम्परिष्वक्तो न वाह्यं किंचन वेद नान्तरं तद् वा अस्यैतदाप्रकाममात्मकाम मकामं रूपम् शोकान्तरम्॥[१]
अर्थात् व्यवहार में जिस प्रकार अपनी प्रिया आर्या को आलिंगन करने वाले पुरुष को न कुछ बाहर का ज्ञान रहता है और न भीतर का इसी प्रकार यह पुरुष प्रइतिमां से आलिंगित होने पर न कुछ बाहर का विषय जानता है और भीतर का यह उसका आप्रकाम, आत्मकाम अकाम और शोकशूयरूप हैं। अनुभव का अर्थ प्रत्यक्ष ज्ञान है और
- ↑ अध्याय ४, ब्राह्मण ३ (२१)।