'स्वानुभूति' की स्थिति में अपनेपन वा आत्मा के अनुभव का होना उस वस्तु की अनुभूति का भी अर्थ रखता है, जो परम तत्त्व है। दोनों की अनुभूति एक साथ और सम्मिलित रूप में होती है। इस अभिन्नता के कारण हमें इनमें से किसी एक की इयत्ता प्रतीत नहीं होती। फलतः अनुभविता एवं अनुभूत की एकता हमें अपनी स्पष्ट अभिव्यक्ति में और भी अक्षम कर देती है और हम एक प्रकार से मूकवत् बन जाते हैं। हमारा प्रत्यक्ष ज्ञान उस समय साधारण अनुभव से बढ़कर उस कोटि विशेष की अनुभूति में भी परिमाण हो गया रहता है, जिसे 'स्वाद' वा 'मजा' कहा जाता है और जिसे साहित्यिक शब्दावली के अनुसार हम 'रस' की संज्ञा देते हैं। इसमें अनुभविता और अनुभूत वस्तु के साथ-साथ स्वयं उस अनुभव की भी एकता हो जाती है, जिसे अद्वैतवाद की भाषा में ज्ञाता, ज्ञेय एवं ज्ञान की 'त्रिपुटी' कहा जाता है। किसी ने कहीं कहा भी है,
"ज्ञाता ज्ञेय अरु ज्ञान जो, ध्याता, ध्येय अरु ध्यान।
द्रष्टा, दृश्य अरु दरश जो, त्रिपुटी शब्दाभान॥"
संतों की रचनाओं के संबंध में जिस 'रहस्यवाद' की चर्चा की जाती है वह, स्वानुभूति की उपर्युक्त अस्फुट अभिव्यक्ति के ही अस्तित्व में आता है। परमतत्त्व की प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाने पर भी, उसके स्वानुभूतिपरक होने के कारण, तद्विषयक अभिव्यक्ति का अस्पष्ट एवं अधूरे रूप में ही होना संभव है। संत लोग उसे प्रकट करने के प्रयत्न बार-बार किया करते हैं। एक ही बात की पुनरुक्तियाँ तक कर देते हैं, किंतु उनकी भाषा उनका पूरा साथ नहीं दे पाती। उनके वर्णन, इसी कारण, बहुधा गूढ़ से गूढ़तर बनते जाते हैं और श्रोता बा पाठक उनसे केवल चकित होकर रह जाता है। संतों में से अधि-