जब लग नदी न समुद समावै, तब लग बढ़ै हंकारा।
जब मन मिल्यौ राम सागर महैं, तब यह मिटी पुकारा॥२॥
जब लग भगति मुकति की आसा, परम तत्त्व सुनि गावै॥"[१] आदि
अर्थात् मैं बार-बार अब गाता क्या रहूं और किसका नाम लेकर गाया करूँ? अब तो मैंने गेय वस्तु का प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया। जब तक इस शरीर की आशा बनी रही तब तक पुकार भी चलती रही, जब मन मग्न हो गया तो अब गाने वाला कौन रह जाता है। नदी जब तक समुद्र तक नहीं पहुँचती तब तक वह कलकल करती व्यग्र हो बढ़ती जाती है, किंतु जब यह मनरूपी नदी रामरूपी सागर में लीन हो गई तो इसकी पुकार भी बंद हो गई। इसलिए परमतत्त्व का श्रवण एवं ज्ञान तभी तक होता है जब तक भक्ति एवं मुक्ति कि आशा वनी रहती है। संतों का रहस्यवाद प्रधानतः उनकी उपर्युक्त वर्णनः शैली की ओर ही संकेत करता है और उसकी विशेषता उनके साधारण प्रतीकों के प्रयोगों में लक्षित होती है जो उनकी रचनाओं में प्रायः सर्वत्र मिला करते हैं।
दाम्पत्य भाव
संतों का सब से प्रिय प्रतीक दाम्पत्यभाव वा पति-पत्नी का प्रेम जान पड़ता है। इसका प्रयोग हमारे यहाँ बहुत पहले से ही होता चला आया है। उपनिषदों तक में इसके दृष्टांत को महत्त्व दिया गया है जैसा 'बृहदारण्यक उपनिषद्' के उल्लिखित अवतरण से भी पता चलेगा। दक्षिण भारत की प्रसिद्ध भक्त कवयित्री गोदा की रचनाओं द्वारा प्रकट होता है कि उन्होंने अपने इष्टदेव को जैसे वरणसा कर लिया था। उसे वे सदा पतिवत् मान कर ही उसकी प्रेमोपासना करती रहीं। राजस्थान की प्रसिद्ध भक्त कवियित्री मीरांबाई
- ↑ 'रैदास जी की बानी' (ब॰ प्रे॰, प्रयाग), पद ३, पृष्ठ ३।