उसे अपनी प्रियतमा बना दिया और उसकी उपलब्धि के प्रयत्न में निरत रहना अपना परम कर्त्तव्य समझा। इसके सिवाय, संतों ने जहाँ उस प्रतीक के प्रयोग केवल व्यक्तिगत रूप में अथवा उसे साधारण परिस्थितियों के ही बीच लाकर किये, वहाँ सूफ़ियों ने उसके लिए प्रेमगाथाओं की सृष्टि की और उसके द्वारा प्रेम एवं विरह के विविध रूपों के प्रदर्शन के लिए एक विस्तृत क्षेत्र भी तैयार कर लिया। इस प्रकार संतों के इस प्रेम में जहाँ पतिव्रत की भावना बनी रहती थी और उनकी अनुभूति की तीव्रता को तीव्रतर करने में एकांत निष्ठा की सहायता मिलती थी वहाँ सूफियों के पुरष-प्रेमी के लिए केवल अपनी इच्छाशक्ति की दृढ़ता ही सहायक होती थी और पथप्रदर्शन के संकेत भी उसे परिचित एवं प्रोत्साहित मात्र ही कर पाते थे। उक्त दोनों बातों में संत लोग भारतीय परंपरा का अनुसरण करते थे जहाँ सूफ़ियों ने ईरान की धारणाओं को अपना आदर्श बनाया था और उन्हीं से प्रेरित हो उन्होंने अपनी प्रतीक संबंधी भावना को स्वरूप भी दिया था। संतों की दृष्टि में, स्वभावतः एक मात्र पुरुष परमात्मा ही है और और अन्य सभी उसकी पत्नियों के रूप में है। दादूदयाल ने स्पष्ट शब्दों में कहा है,
"पुरिष हमारा एक है, हम नारी बहु अंग।
जे जे जैसी ताहिसों, बेलै तिसही रंग॥५७॥[१]"
अर्थात् हम सभी का पुरुष एक मात्र वही है और हम लोग उसकी भिन्न-भिन्न लक्षणों वाली पत्नियाँ हैं। हम लोगों में से जो जिस प्रकार की है वह उसी प्रकार उसके साथ खेल खेला करता है। संत कबीर साहब
- ↑ 'दादूदयाल की वाणी' (अंगबंधू), पृष्ठ ३४।