नहीं ठहरा सकेंगे। मधुररस के अंतर्गत रतिभाव के सुख और आहलाद की मात्रा आनंद के स्तर तक पहुँच जाती है जो आत्मतृप्ति-जनित संतोष एवं पूर्ण शांति की दशा में ही संभव है। 'रस' को हमारे वैदिक साहित्य में, 'रसो वैस:' तथा 'रस ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति' कहकर पूरा महत्त्व दिया गया था और ब्रह्मानंद अथवा आत्मानन्द को सर्वोत्कृष्ट भाव ठहराया गया था, किंतु प्राचीन साहित्यज्ञों ने अपने यहाँ उसे कोई स्थान देना उचित नहीं समझा। उन्होंने केवल आठ रसों की ही कल्पना की और शांतरस नाम का नवरस अपने निर्वेद स्थायीभाव के साथ कहीं पीछे चलकर ही अपनाया गया।
रस
'संत काव्य' के अंतर्गत प्रबंधमयी रचनाओं की कमी है जिस कारण उसमें किसी रस की पूर्ण निष्पत्ति के उदाहरणों का अधिक संख्या में पाया जाना संभव नहीं है। किंतु संतों की फुटकर बानियों में भी हमें ऐसे अनेक स्थल मिलेंगे जिनमें किसी न किसी रस की अभिव्यक्ति का पता लगाया जा सकता है संतकाव्य स्वभावतः शांतरस प्रधान है। उसके अनंतर शृंगाररस का नाम आता है जो अधिकतर मधुररस के रूप में ही दीख पड़ता है। अन्य रसों में से वीर, वीभत्स एवं अद्भुत के भी उदाहरण अच्छी संख्या में मिलते हैं। करुण, हास्य तथा रौद्र और भयानक का प्रायः अभावसा है। रसों के लिए उदाहरण इस प्रकार दिये जा सकते हैं
(१) रे यामें क्या मेरा क्या तेरा,
लाजत मरहिं कहत घर मेरा॥टेक॥