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भूमिका

चारि पहर निसि भोरा, जैसे तरवर पंषि बसेरा।
जैसे अनियें हाट पसारा, सब जग का सो सिरजनहारा॥
ये ले जारे वे ले गाड़े, इनि दुखिइनि दोऊ घर छाड़े॥
कहत कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम्ह विनसि रहँगा सोई॥१०३॥[१]
(२) कहा करौं कैसें तिरों, भौजल अति भारी।
तुम्ह सरणागति केसवा, राखि राखि मुरारी॥टेक॥
घर तजि बनखंडि जाइये, खनि खइये कंदा।
विषै विकार न छूटई, ऐसा मन गंवा॥
विष विषिया की वासना, तजौं तजी न जाई।
अनेक जतन कर सुरभिहौं, फुनि फुनि उरभाई॥
जीव अछित जोवन गया, कछू कीया न नीका।
यहु हीरा निरमोलि का, कौड़ी पर बीका।
कहूँ कबीर सुनि केसवा, तूं सकल बियापी।
तुम्ह समानि दाता नहीं, हमसे नहिं पायी॥१७८॥[२]
(३) मेरौ देह मेरौ गेह मेरौ परिवार सब,
मेरौ धन माल में तौ बहुविधि भारौ हौं।
मेरौ सब सेवक हुकम कोउ मेटै नाहि,
मेरी जुवती कौ मैं तो अधिक पियारी हौं॥
मेरौ वंश ऊंचौ मेरे बाप दादा ऐसे भये।
करत बड़ाई में तौ जगल उज्यारौं हौं।
सुन्दर कहत मेरौ मेरौ करि जाने सठ,
ऐसी नहि जाने मैं तौ काल हीं कौ चारौ हौं॥१५॥[३]


  1. 'कबीर ग्रंथावली' (का॰ ना॰ प्र॰ सभा), पृष्ठ १२१।
  2. वही, पृष्ठ १४८।
  3. सुन्दर ग्रन्थवाली, पृष्ठ ४१३।