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संत-काव्य

(४) तू ठगिकै धन और कौ ल्यावत, तेरेउ तौ घर और फोरें।
आगि लगे सब ही जरि जाइ सु, तूं दमरी करि जोरें॥
हाकिम को डर नाहिन सूझत, सुन्दर एकहि बार निचोरै॥
तू षरचै नाहिं आयु न षाइ सु तेरी हि चातुरि तोहि ले बोरे॥२५॥[१]
(५) कै यह देह धरौ वन पर्वत के यह वह नदी में बहौ जू।
कै यह देह धरौ धरती माहिं, के यह बेह कृशान दही जू॥
कै यह देह निरादर निर्दहु, के यह देह सराहि कही जू।
सुन्दर संशय दूरि भयौ सब, के यह देह चलौ कि रहौं जू॥३॥[२]
(६) ज्ञान को बान लगो धरती, जन सोबत चौकि अचानक जागे। ::छूटि गयो विषया दिष बंधन, पूरन प्रेम सुधारस पाये॥
भावत वाद विवाद निखाब न, स्वाद जहाँ लगि सो सब त्यागे।
मूंदि गई अखियाँ तब, जबतें हिय में कछु हेरन लागे॥९॥[३]
(७) अजब तमासा देखा तेरा। ताते उदास भया मत मेरा ॥१॥
उतपत्ति परलय नित उठ होइ। जग में अमर न देखा कोई॥२॥
माटी के पुरे माया लाई। कोई कहे बहिन कोई कहै भाई॥३॥
झूठा नाता लोग लगावें। मन मेरे परतीत न आवे॥४॥
जबहीं भेजे तबहि बुलावे। हुकुम भया कोइ रहन न पावे॥५॥
उलटत पलटत जग की अंचली। जैसे फेरे पान तमोली॥६॥
कहत मलूक रह्यो मोहि घेरे। अब माया के जाउं न तेरे॥७॥[४]
(८) बनिया समुझ के लाद लदनियाँ॥टेका॥
यह सब मीत काम ना आवे संग न जाइ परवनियाँ॥१॥


  1. सुन्दर ग्रंथावली, पृष्ठ ४०३।
  2. वही, पृष्ठ ६४३।
  3. "धरनीदास की बानी', पृष्ठ ३३।
  4. "मलूकदास की बानी', पृष्ठ १२-१३।