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भूमिका

पाँच मने को पूंजी राखत, होइगे गर्व गुमनियाँ॥२॥
करिले भजन साथ की सेवा, नाम से लाव लगनियाँ॥३॥
सौदा चाहँ तो याँही करिले, चाने न हाट दुकनियाँ॥४॥
पलटुदास गोहराय कहत हैं, श्रागे देस निरपनियाँ॥५॥६९॥[१]
(९) टोप टोप रस आनि मक्खी मधु लाइया।
इक लै गया निकारि सबै दुख पाइया॥
मोको भा वैराग ओहिको निरखि कै।
अरे हां, पलटू माया बुरी बलाय तजा में परखि कै॥४८॥[२]

इन अवतरणों में से १, ३ एवं ७ में प्रदर्शित सांसारिक संबंध की अनस्थिरता एवं नश्वरता द्वारा निवेद का ४, ५ एवं ९ के अपरिग्रह एवं अनासक्ति द्वारा वैराग्य का ६ तथा ८ के ज्ञानोदय एवं चेतावनी द्वारा आत्मज्ञान का तथा २ के आत्मनिवेदन द्वारा जो शम का भाव व्यक्त किया गया दीख पड़ता है उसके कारण इनमें शांतरस की अनुभूति अच्छी मात्रा में मिल जाती है।

शृंगार (मधुर) रस

संयोग

(१) अब तोहि जाँन न दैहूं राम पियारे,
ज्यूं भावे त्यूँ होइ हमारे॥टेक॥
बहुत दिनन के बिछुरे हरि पाये, भाग बड़े घरि बैठे आये॥
चरननि लागि करौं बरियाई, प्रेम प्रोति राखौँ उरभाई॥
इत मनमंदिर रहौ नित चोषै, कहै कबीर परहु मति घोषै॥३॥[३]


  1. 'पलटू साहिब को बानी'; भाग ३, पृष्ठ ३८।
  2. 'पलटू साहिब की बाली, भाग २, पृष्ठ ८५।
  3. 'कबीर ग्रंथावली,' पृष्ठ ८७॥