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संत-काव्य

(२) राम रंगीलै कै रंगराती।
परम पुरुष संग प्राण हमारौ, मगन गलित मद माती॥टेक॥
लाग्यो नेह नाम निर्मल सों, गिनत व सोली ताती।
डगमग नहीं अडिग उर बैठी, सिर धरि करवत करती॥
सब विधि सुखी राम ज्यूं राखें, यहु रस रोति सुहाती।
जन रज्जब धन ध्यान तुम्हारो, बेर बेर बलि जाती ॥२॥[१]
(३) बहुत दिनन पिय बसल बिदेसा।
आजु सुनल निज अवन संदेसा ॥१॥
चित चितसरिया में लिइलों लिखाई।
हृदय कमल धइलों दियना लेसाई॥२॥
प्रेम पलंग तंह धइलों बिछाई।
नखसिख सहज सिंगार बनाई॥३॥
मन हित अगुमन दिहल चलाई।
नयन धइल दोउ दुअरा बैसाई॥४॥
धरनी धनि पल पल अकुलाई।
बिनु पिया जिवन प्रकार जाई ॥५॥[२]

वियोग


(१) कब देखूं मेरे राम सनेही,
जा बिन दुख पावै मेरी देही॥टेक॥
हूँ तेरा पंथ निहारूं स्वामी, कबर मिलहुगे अंतरजामी।
जैसे जल बिन मौन तलपै, ऐसे हरि बिन मेरा जियरा कलपै।
निस दिन हरि बिन नींद न आवे, दरस पियासी क्यूं सचुपावै।
कहै कबीर अब विलंब न कीजैं, अपनो जानि मोहि रसन दीजै॥ २२४॥[३]


  1. 'रज्जबजी की वाणी', पद १४, पृष्ठ ४२५।
  2. 'धरनीदासजी की वाणी', पद २, पृष्ठ १।
  3. 'कबीर ग्रंथावली', पृष्ठ १६४३