गंग जमुन के बिचवां हों, बहै झिरहिर नीर।
तेहि ठैयाँ जोरल सनेहिया हो, हरि लैगयो पीर॥४॥
जोगिया अमर मरै नहिं हो, पुजवल मोरी आस।
करम लिखा वर पावल हो, गावै पलटूवास॥५॥[१]
इन अवतरणों में से संभोग वा संयोग शृंगारसूचक जो पद हैं उनमें नायिका के मिलन जनित संतोष एवं उल्लास के भाव भरे हैं। और उनमें से तीसरे में किसी आगमिष्य पति का वासकसज्जा का भी उदाहरण दीख पड़ता है। इसी प्रकार विप्रलंभ वा वियोगसूचक शेष चारों पदों में से जहाँ-जहाँ रे में विरह-व्यथा का वर्णन है वहाँ १ तथा ३ में उसीके संबंध में आत्मनिवेदन है। उनमें से चौथे अर्थात् अंतिम पद के रचयिता ने विरहिणी की मधुर स्मृतियों का वर्णन देकर अंत में अपने मिलन की भी सूचना दे दी है।
संतों की रचनाओं में जहाँ वीररस का भाव दीख पड़ता है वहाँ उनकी विशेषता के अनुसार युद्ध का रूपक या तो, अपने मन एवं इंद्रियों के दमनार्थ, उनके विरुद्ध संग्राम छेड़ने के संबंध में, लक्षित होता है अथवा भीतरी योग साधना विषयक प्रयासों के प्रसंग में। कबीर साहब ने अनेक स्थलों पर जो 'करि इंद्रयांसू भ्रूझ', 'काम क्रोधसूं झूझणां' एवं 'सुमिरण सेलसंवाहि' आदि संकेतों के प्रयोग किये हैं वे, इसी कारण, आध्यात्मिक जीवन के उद्देश्य से किये गए विविध प्रयत्नों को ही सूचित करते हैं। जैसे,
(१) गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानं धाव।
खेत बुहारया सूरिवैं, सुझ मरणे का चाव॥६॥[२]