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भूमिका


कबीर मेरे संसा को नहीं, हरिसँग लागा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़े मांड्या खेत ॥७॥[१]
(२) तड़फड़ै सूर नीसान घाई पड़ै, कोट की वोट सब छोड़ि चालैं।
स्यांम के काम कौं लोट अरु पोटह्नै, निकसि मैदान मैं चोट घालै।
कड़कड़ै वीर गजराज हय हड़हड़ै, घड़हडै धरनि ब्रह्मंड गाजै।
झलहलै सार हथियार प्रति षड़हड़ै देषिता दूरि अकसूरि भाजै।
तुषक तरवारि अरु सेल टक टूक ह्व बाँण को ताँर्ण चहुं फेर होई।
गहर घमसांण में कहर धीरज धरै, हहरि भाजे नहीं सुभट होई।
पिसुन सब पेलि झड़ओलि सनमुख लड़ें, मर्दको मारि करि गर्द मेलै।
पंच पच्चीस रिपु रीसकरि निर्दलै, सीस भुइ मेल्हि को कमध घेलै।
अंगम कौ गमि करें दृष्टि उलटो घरै, जोति संग्राम निज धाम आवै।
दास सुन्दर कहै मौज मोही लहै, रीझि हरि राइ दरसन दिषाधैं।[२]

यहाँ पर 'गगन', 'दमामा' आदि शब्दों के प्रयोग काया के भीतर वर्त्तमान अवयवों एवं 'शब्दों', के लिए ही किये गए हैं। दूसरे पद में उसके रचयिता ने वीररससूचक तथा परुषा वृत्ति वाले शब्दों के भी प्रयोग अच्छी मात्रा में किये हैं।

वीभत्सरस

(१) चलत कत टेढ़ौ टेढौरे।
नऊं दुबार नरक धरि मूंदे, तूं दुरगंधि को बेढोरे॥टेक॥
जे जारै तौ होइ भसम तन, रहित किरम जल खाई।
सकर स्वांन काग कौ भाखिन, तामैं कहा भलाई॥
फूटे नैन हिरदै नहि सूझै, मति एकै नहिं जांनी।
माया मोह ममता सूं वांध्यौ, बड़ि मुवौ बिन पांनी॥


  1. 'कबीर ग्रंथावली', पृष्ठ ६८ (सा॰ ७)।
  2. "सुन्दर ग्रंथावली', पृष्ठ ८८१ (पद ४)