बाल के घरवा में बैठो, चेतत नहीं आयांना।
कहै कबीर एक राम भगति बिन, बूड़े बहुत सयाना॥३११॥[१]
(२) जा शरीर मांहि तूं अनेक सुख मानि रह्यौ,
ताही तूं विचार यामैं कौन बात भली है।
भेद मज्जा मांस रग रगति मांहि रक्त,
पेट हू पिटारी सी मै ठौर ठौर मली है॥
हाड़नि सौं मुख भरयौं हाड़ ही के नैन नाक,,
हाथ पांव सोऊ सब हाड़ ही की नली है।
सुन्दर कहत याहि देषि जिनि भूलै कोइ।
भीतरि भंगार भरि ऊपर तें कली है॥२॥[२]
(३) उदर मैं तरक नरक अधद्वारनि मैं,
कुचनि मैं नरक नरक भरी छाती है।
कंठ मैं नरक गाल चिबुक नरक बिंब,
मुख मैं नरक जीभ लारहू चुचाती है॥
नाक मैं नरक आषि कान में नरक बहै,
हाथ पाव नख शिख नरक दिषाती है।
सुन्दर कहत नारी नरक कौ कुंड यह,
नरक मैं जाइ परैं सो तरक पाती है॥३॥[३]
इन अवतरणों में से प्रथम दो में मानव शरीर के प्रति जुगुप्सा का भाव
व्यंजित हैं और उसके लिए अधिक ममत्व दिखलाने वालों को चेतावनी है। इसी प्रकार तीसरी रचना के अंतर्गत नारी के अंग को कुंडवत्ब तलाकर उससे तटस्थ बने रहने की ओर संकेत है।