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भमिका


अद्भुतरस

(१) एक अचंभा देखा रे भाई, ठाड़ा सिंघ चराबै गाई॥टेक॥
पहले पूत पीछैं भई माइ, चेला कै गुर लागै पाई॥
जल को मछली तरवर व्याई, पकड़ि बिलाई मुरगै खाई।
बैलहि डारि गूंनि घरि आई, कुत्ताकूं लै गई बिलाई॥
तलिकरि साधा ऊपरि करि मूल, बहुत भांति जड़ लागै फूल।
कहै कबीर या पद को बूझै, ताकूं तीन्यू त्रिभुवन सूझै॥११॥[१]
(२) भाई रे बाजीगर नट वेला, अैसै आपै रहै अकेला॥टेक॥
यह बाजी षेल पसारा, सब मोहे कौतिग हारा‌।
यह बाजी षेल दिषावा, बाजीगर किनहूं न पावा॥१॥
इहि बाजी जगत भुलाना, बाजीगर किनई न जाना।
कुछ नाहीं सो पेषा, है सो किनहूँ न देवा॥२॥
कुछ अैसा चेटक कीन्हा, तन मन सब हरि लीन्हा।
बाजीगर भुरकीबाही, काहूपै लषी न जाई॥३॥
बाजीगर परकासा, यहु बाजी झूठ तमासा।
दादू पाबा सोई, जो इहि बाजी लिपत न होई॥४॥[२]

इन दोनों उदाहरणों में ऊटपटांग अथवा अलौकिक वर्गों के द्वारा पाठक वा श्रोता के हृदय में विस्मय उत्पन्न करने की चेष्टा स्पष्ट है। पहला पद उस कोटि में भी आता है जिसे उल्टवांसी की संज्ञा दी जातो है। उसका वास्तविक अभिप्राय उसमें उपलब्ध विविध प्रतीकों के पीछे छिपी वस्तुओं को भलीभाँति समझ लेने पर ही प्रकट हो पाता है। उस पद का अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है:—क्योंकि आश्चर्य की बात है कि सिंह खड़ा-खड़ा गाय को चरा रहा है (अर्थात्


  1. 'कबीर ग्रंथावली', पृष्ठ १९३ (पद ३११)
  2. 'दादूदयाल को बाणी', पृष्ठ ४८८ (पद ३०६)