स्थिरज्ञान द्वारा अनुप्राणित वाणी उचित रूप में स्फुरित हुआ करती है)। पुत्र का जन्म हो चुकने पर माता का आविर्भाव हुआ (अर्थात् जीव का शुद्ध रूप माया द्वारा परिच्छिन्न होने के पूर्व विद्यमान था), चला के पैरों पर गुरु माथा टेक रहा है (अर्थात् निर्मल हो गए हुए चित्त के प्रति शब्द स्वयं आकृष्ट हो जाता है अथवा मन स्वयं वशीभूत हो जाता), जल में रहने वाली मछली ने वृक्ष पर जाकर अंडे दिये (अर्थात् मूलाधार के निकट वर्त्तमान कुंडलिनी मेरुदंड के ऊपर जाकर फलप्रद सिद्ध हुई), बिल्ली को पकड़कर मुर्गें ने खा लिया (अर्थात् ज्ञानोपलब्धि के हो जाने पर मन दुर्नीति को नष्ट कर देता है वा सर्वथा त्याग देता है), बैल को बाहर छोड़कर गून स्वयं घर पर लौटा आई (अर्थात् स्वरूप की सिद्धि हो जाने के पहले से ही शरीर के प्रति उपेक्षा का भाव आ गया), कुत्ते को बिल्ली ले भागी (अर्थात् अज्ञानी पुरुष को माया ने बहका लिया), शाखा नीचे की ओर हो गई और जड़ ऊपर चली गई (अर्थात् प्राणों के ऊपर की ओर चढ़ाये जाते ही इंद्रियाँ वश में आ गई अथवा सृष्टि का मूल ऊपर की ओर है और उसका विस्तार नीचे की ओर है) तथा उसमें अनेक प्रकार के फल-फूल भी लग गए (अर्थात् सुषुम्ना के अंतर्गत षट्चकों का अस्तित्व है)। कबीर का कहना है कि जो कोई इस पद के रहस्य को जान लेता है उसे त्रिभुवन की की सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं।
अलंकार
संतों की रचनाओं में जिस प्रकार विभिन्न साहित्यिक रसों का स्वाद मिल जाता है उसी प्रकार उनमें अनेक अलंकारों की भी छटा दीख पड़ती है। संतों को अपने गूढ़ विषयों का परिचय देते समय प्रतीकों का सहारा लेना आवश्यक था और उन्हें इस बात की भी आवश्यकता थी कि जिन व्यक्तियों के समझने के लिए वे अपने पद्य लिखा वा कहा करते थे वे उनके भावों को भलीभाँति हृदयंगम कर सकें। इस कारण वें