अपने उद्गार इस प्रकार व्यक्त करते थे जिसमें स्पष्टीकरण के साथ-साथ रोचकता का भी समावेश हो जाया करता था। तदनुसार अलंकारों के प्रयोग, उनके पद्यों में, बहुधा आपसे आप हो जाया करते थे। फिर भी कुछ संतों की रचनाओं में ऐसी शैली का व्यवहार जानबूझकर किया गया भी दीख पड़ता है और कहीं-कहीं वह बनावटी तक सा हो गया है। ऊंची कोटि के संतों में उपर्युक्त प्रवृत्ति का पाया जाना स्वाभाविक हो सकता है और भलीभांति पढ़े-लिखे संतों ने ऐसे प्रयोग समझबूझकर भी किये होंगे। किन्तु साधारण कोटि के व्यक्तियों ने जहाँ आदर्श संतों का अनुकरण इन बातों में भी करना चाहा है वहाँ वे लोग उतने सफल नहीं हो सके हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में जिसे रीतिकाल (सं॰ १७००-१९००) कहते हैं उस समय पद्य की रचनाशैली अधिक अलंकृत हो चली थी उस युग में भक्ति एवं वीरता जैसे विषयों पर लिखी जाने वाली कविताओं में भी अलंकारों के प्रयोग प्रायः अनिवार्य हो गए थे। अतएव उस काल के संतों ने वैसी रचनाशैली का व्यवहार उस प्रचलन के अनुसार भी किया और उनमें से जो पंडित एवं साहित्यमर्मज्ञ थे उन्होंने काव्यकला प्रदर्शित करने के उद्देश्य से चित्रकाव्यों तक की रचनाएं कर डाली।
फिर भी संत काव्य के अंतर्गत अधिकतर केवल उन्हीं अलंकारों के प्रयोग दीख पड़ते हैं जो अर्थालंकारों में गिने जाते है और जो संतों की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति में स्वभावतः सहायक होने के योग्य हैं। संतों का प्रमुख वर्ण्य विषय वह 'सत्' नाम की वस्तु हैं जो 'इंद्रिय गम्य' न होने के कारण सर्वथा अनिर्वचनीयसी कहीं जा सकती हैं। उस वस्तु की वे प्रत्यक्ष अनुभूति कर चुकने का दावा करते हैं और वे यहाँ तक कह डालते हैं कि जो कोई भी चाहे वह स्वयं अपने प्रयत्नों द्वारा उस दशा तक पहुँच सकता है। इस कारण अपने अत्यंत गूढ़ विषय का भी परिचय वे, अधिक से अधिक सरलता के साथ, देने के