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संत-काव्य

प्रयत्न करते हैं और अपनी साधनाओं एवं अनुभूतियों के स्पष्ट से स्पष्ट विवरण प्रस्तुत कर दूसरों से भी उनसे लाभ उठाने का अनुरोध करते हैं। इसके लिए वे एक अमूर्त वस्तु को भी स्वभावतः मूर्तरूप प्रदान कर देते हैं, अन्तर्विहित साधनाओं को प्रत्यक्ष बना देने के लिए प्रतीकों के प्रयोग करते हैं और अपनी निजी अनुभूति की अस्फुट अभिव्यक्ति को बोधगम्य कराने की चेष्टा में दृष्टांतों का सहारा लेने लगते हैं। उन्होंने रूपकों के प्रयोग कदाचित् सबसे अधिक किये हैं और जहाँ उन्हें भी असमर्थ पाया है वहाँ विभावनां से भी काम लिया है। उदाहरणों के प्रयोग उन्होंने भलीभाँति समझाने के किये है और 'यमक' एवं 'अनुप्रास' को अपने आनंदातिरेक में आकर स्थान दे दिया है। फिर भी संतों की रचनाओं में अन्य कई अलंकारों का भी समावेश हो गया है जैसा कि नीचे के कुछ अवतरणों द्वारा विदित हो जायगा।

क. अर्थालंकार

रूपक

(१) संत भई आई ग्यांन की आंधी रे।
भ्रम को टाटी सबै उडाणी, माया रहै न बांधी ॥टेक॥
हिति चत की द्वै थुंनी गिरानी, मोह वलींडा तूटा।
त्रिस्ना छांनि परीवर ऊपरि, कुबधि का भांडा फूटा॥
जोग जुगति करि संतो बांधी, निरचू दुवै न पांणी।
कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जांणी॥
आंधी पीछैं जो जल बूठा, प्रेम हरी जन भींना।
कहै कबीर भान के प्रगटें, उदित भया तम बीना॥१६॥[१]


  1. 'कबीर ग्रंथावली', पृष्ठ ९३ (पद १६)