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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/९४

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भूमिका

(२) श्रवन बिना धुनि सुनय, नैन बिन रूप निहारय।
रसना बिन उच्चरय, प्रशंसा बहु विस्तारय॥
नृत्य चरन बिनु करथ, हस्त बिनु ताल बजावै।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनन्द बढावै॥
बिन सीस नवै तहँ सेव्य कौं, सेवक भाव लिये रहै।
मिलि परमातमसों आत्मा, पराभक्ति सुन्दर कहै॥५०॥[]
(३) बिना नीर बिंदु मालिहीं, बिनु सींचे रंग होय।
बिनु नैनन तहँ दरसनो, अस अचरज इक सोय॥६॥[]
(४) बिना सीख कर चाकरी, विन खांडे संग्राम।
बिन नैनन देखत रहे, निसु दिन आठो जाम॥७॥[]
(५) बिन जल कँवला विनसेऊ, बिना भँवर गुंजार।
नाभि कँवल जोती वरै, तिरवेनी उजियार॥४॥[]

इन अवतरण में प्रायः सर्वत्र उपयुक्त कारणों के अभाव में भी कार्यों के घटित होने की कल्पना की गई है जिस कारण विभावना है।

अन्योक्ति

(१) काहेरी नलिनी तूं कुंमिलानी।
तेरे ही नाल सरोवर पानी॥टेक॥
जल में उतपति, जलमें वास, जलमें नलिनी तोर निवास॥
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेत कह कासनि लागि
कहै कबीर जे उदिक समान, ते नहीं भूए हमारे जान॥६४॥[]


  1. 'सुन्दर ग्रंथावली', पृष्ठ २८ (छ॰ ५०)।
  2. 'बुल्ला साहेब का शब्दसागर', पृष्ठ ३५ (सा॰ ६)।
  3. 'केसोदास को 'अमोघूंट'; पृष्ठ २ (सा॰ ७)।
  4. 'गुलाब साहब को बानी', पृष्ठ १४१ (सा॰ ४)।
  5. 'कबीर ग्रंथावली', पृष्ठ १०८ (पद ६४)।