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संत-काव्य

अर्थंतिरन्यास

(१) नानक पारखे आप कउ, ता पार जाणु।
रोगु दारू दोवै दुझै ता बैहु सुजाणु॥[१]
(२) रंग होय तौ पीव कौ आन पुरुष विष रूप।
छांह बुरी पर धरन को, अपनी भली जु धूप॥४॥[२]
(३) साहब कूं तो भय धना, सहजो निर्भय रंक।
कुंजर के प बेडियाँ, चींटी फिरे निसंक॥१३॥[३]

दृष्टांत

(१) संत न छाड़ैं संतई, जे कोटिक मिलें असंत।
चंदन भुवंगा बैठिया, सीतलता न तजंत॥२॥[४]
(२) रज्जब जग जलता मिलै, साधू सीतल अंग।
चंदन विष या नहीं, जो कोटिक सिदै भुवंग॥१२॥[५]
(३) पसस्यूं पग पग मारहै सिमट्यूं सों नहिं होय।
जन रज्जब दृष्टांत कूं, मन कच्छप दिसि जोय॥१५॥[६]
(४) कुंभे बधा जलु रहे, जल बिनु कुंभ न होइ।
गिआन का बधा मनु रहे, गुर बिन गिआन होइ॥[७]

तुल्ययोगिता

(१) मनका सूतकु लोभ है, जिहवा सूतकु कू।
अरवी सूतकु देखणा, परत्रिय परधन रूयु॥[८]


  1. 'आदिग्रंथ' महला २ (गुरु अंगद, सलोक)।
  2. 'चरणदास की बानी', पृष्ठ ४७ (सा॰ ४)।
  3. 'सहज प्रकाश', पृष्ठ ३७ (सा॰ १३)।
  4. क॰ ग्रं॰, पृष्ठ ५१ (सा॰ २)।
  5. 'रज्जबजी को बानी', 'पृष्ठ ७० (सा॰ २) पृष्ठ २५१ (सा॰ १५)।
  6. 'रज्जबजी को बानी', 'पृष्ठ ७० (सा॰ २) पृष्ठ २५१ (सा॰ १५)।
  7. आदि ग्रंथ, महला १ (गुरु नानक सा॰)।
  8. आदि ग्रंथ, महला १ (गुरु नानक सा॰)।