(२) साधू सोप सरोज गति, सकति सलिल में वास!
प्यंड पुष्ट ह्वै और दिसि, प्राण और दिसि आस॥१५॥[१]
(३) यक्ति होत पाका सुमन, ज्यूं कण हांड़ी माहिं।
कांचा कूदै ऊछलैं, निहचल बैठे नाहिं॥६६॥[२]
भूमि परै अप आपहू कै परै पावक है,
पावक कै परै पुनि वायुहू बहत है।
वायु परै व्योम व्योमहू कै परै इन्द्री दश,
इन्द्रिन कै परै अन्तःकरण रहतु है॥
अन्तःकरण पर तीनों गुन अहंकार,
अहंकार परै यह तत्त्व कौं कहतु है।
महत्तत्व परै मूल माया माया परै ब्रह्म,
ताहितैं परात पर सुन्दर कहतु है॥१६॥[३]
इस अवतरण में यदि क्रमोत्कर्ष का भाव भी व्यंजित समझा जाय
तो यह 'सार' अलंकार का उदाहरण कहा जा सकता है।
गोविन्द के किये जीव जात हैं रसातल कौं,
गुरु उपदेते सुतौ छूटें जम फंद लें।
गोविन्द के किये जीव बस पर कर्मनिकैं,
गुरु के निवाजे सो फिरत हैं स्वच्छन्द तें।
गोबिन्द के किये जीव बूड़त भौसागर मैं,
सुन्दर कहत गुरु काढ़े दुख द्वंदतैं।