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संत-काव्य
और ऊ कहाँ लौं कछु मुखतें कहाँ बनाइ,
गुरु की महिमा अधिक है गोविद तें॥२२॥[१]
उपमा
(१) यहु ऐसा संसार है जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के त्यौहार कौं, झूठे रंगिन भूल॥१३॥[२]
(२) हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥१६॥[३]
(३) जिहि जेवड़ी जग बंधिया, तूं जिनि बधै कबीर।
ह्वैसी आटा लूणं ज्यू, सोना सवाँ सरीर॥४८॥[४]
(४) इंद्रिन के सुख मानत है शठ, याहिततें बहुते दुख पावै।
ज्यों जलभं भव मांसहि लीलत, स्वाद बंध्यौ जल बाहरि आवै॥
ज्यौं कपि मूठिन छाडल है, रसना बसि बंदि परचौ मिललावै।
सुन्दर क्यों पहिले न संभारत, जो गुर पाइसु काँन बिंधावें॥१८॥[५]
(५) सत गुरु शब्दी लागिया, नावक का सा तीर।
कसकत है निकसत नहीं, होत प्रेम की पीर॥२०॥
अनन्ययोपमा
एक कहूं तौ अनेक सौ दीसत,
एक अनेक नहीं कबु ऐसो।
आदि कहूं तिहि अंतहू आवत,
आदि न अंत न मध्य सु कैसो॥