पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१००

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मचित्र महाभारत [पहला खण्ड इसके बाद महर्षि द्वैपायन स्वयं यज्ञ के ब्रह्मा बने । धनञ्जय सुसामा बन कर सामवेद का गान करने लगे। ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य, वसु के पुत्र पैौल और धौम्य होता और उनके शिष्य सदस्य हुए। यज्ञ- सम्बन्धी बातों के विषय में नाना प्रकार के तर्क वितर्क हो चुकने पर स्वस्तिवाचन प्रारम्भ हुआ। फिर संकल्प छोड़ने के बाद उस बड़ी यज्ञशाला की शास्त्र के अनुसार पूजा की गई। इसके अनन्तर कारीगरों ने आज्ञा पाकर वहाँ अच्छे अच्छे घर बनाये । यथाशास्त्र सब प्रबन्ध हो चुकने पर युधिष्ठिर ने सहदेव को आज्ञा दी :- भाई ! तेज़ चलनेवाले दूतों को निमन्त्रण देने के लिए सब कहीं भेजे। :- सहदेव ने आज्ञा सिर माथे पर चढ़ाकर सब कहीं योग्य दूत तुरन्त ही भंज दिये । उन्होंने दूतों से कह दिया कि हमारे देश में जितने ब्राह्मण और वैश्य हैं उन्हीं को नहीं, किन्तु शूद्रों तक को यज्ञ की खबर दे देना। इसके बाद राजा युधिष्ठिर ने भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र, विदुर, कृपाचार्य और दुर्योधन आदि को बुलाने के लिए नकुल को हस्तिनापुर भेजा। उन्होंने बड़े आदर से सबको नेवता दिया । भीष्म, द्रोण, कृप और धृतराष्ट्र के पुत्रों ने उसे स्वीकार करके यज्ञकार्य देखने के लिए शीघ्र ही प्रस्थान किया। ठीक समय पर अनेक देशां से गजा लोग आने लगे । सिन्धुनरेश जयद्रथ, मपुत्र द्रपदगज, मपुत्र विराट्गज, मपुत्र शिशुपाल, बलराम आदि यादव-वीर, काश्मीरनरेश तथा सिंहलनरेश आदि पहाड़ी राजों से लेकर दक्षिगा समुद्र के तट पर रहनेवाले म्लेच्छ तक, तरह तरह के उपहार लेकर. खाण्डवप्रस्थ में आने लगे। ___ धर्मराज ने आये हुए गजां का यथाचित सम्मान किया और ठहरन के लिए उन्हें अलग अलग घर दिये । जितने घर थे सब जी लभानेवाले तरह तरह के राजसी ठाठ के सामान से सजे हुए थे और तालाब तथा वृक्षों से शोभायमान थे । गजा लोगों की थकावट वहाँ पहुँचते ही मिट गई । वे लोग चित्त को हर लेनेवाली मभा की शोभा देखने और सभासदों तथा ब्रह्मर्षियों से घिरे हुए युधिष्ठिर का दर्शन करने लगे। इसके बाद युधिष्ठिर ने भीष्म आदि कौरवों से कहा :- आप लोग इस यज्ञ में सब तरह हम पर कृपा कीजिए। हमारे धनदौलत के हमारी ही तरह आप भी मालिक हैं। जिसमें हमारी भलाई हो वही आप कीजिए। इस प्रकार सबसे कह कर, यज्ञ की दीक्षा लिये हुए पाण्डवराज युधिष्ठिर ने सबको अपना अपना काम अलग अलग बाँट दिया। दुःशासन को खाने की चीजों का, अश्वत्थामा को ब्राह्मणों की सेवा का, धतराष्ट्र के पुत्र सञ्जय का राजे की शुश्रपा का, दुर्योधन को आया हुआ उपहार लेने का, कृपाचार्य को रन आदि की निगरानी का और कृष्ण को ब्राह्मणों के पैर धोने का काम सौंपा गया। धृतराष्ट्र आदि बूढ़े लोग घर के मालिक की तरह रहे । भीष्म और द्रोण सब बातों की देख भाल करने लगे। शुभ मुहूर्त आने पर ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर को नियम के अनुसार राजसूय यज्ञ की दीक्षा दी। इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर हजारों ब्राह्मणों, भाइयों, मित्रों, सजातियों, अधीन राजों और क्षत्रियों से घिरे हुए मूर्तिमान धर्म के समान यज्ञशाला में गये । वहाँ सभामण्डप में पहुँच कर भीतर की वेदी पर बैठ गये। उनके चारों तरफ नारद आदि महर्षि और राजा लोग बैठे, और उन पर मन्त्र से पवित्र किया हुआ जल छिड़कने लगे। इस काम के समाप्त होने पर ऋषि लोग तरह तरह की बातें करने लगे। धीरे धीरे बात बढ़ गई और उनमें बड़ी बेढब बहस होने लगी। किसी ने भारी चीज़ को छोटी बताया, किसी ने छोटी को भारी । कोई दूसरे के बताये हुए अर्थ का खण्डन करने लगा।