८९ पहला लण्ड] . पाण्डवों का राज्यहरण के पैदा होते ही बड़े बड़े अशकुन हुए थे वही दुर्योधन हमारे विनाश का कारण होगा। इस समय इसमें सन्देह नहीं मालूम होता। शराब के कारण शराबियों की जो दुर्दशा होती है क्या वे उसे समझ सकते हैं ? जुए में मस्त आपका पुत्र भी पाण्डवों के साथ शत्रुता करने का बुरा फल उसी तरह नहीं समझ सकता । कितने ही राजों ने राज्य की, कुल की और अपनी रक्षा के लिए पुत्र छोड़ दिये हैं। इसलिए हे भारत ! यदि आप चाहते हैं कि पीछे पछताना न पड़े तो इस समय भी, समय रहते, इस दुरात्मा को छोड़ दीजिए। आप पाण्डवों का धन पाने की इच्छा से घर बैठे विपद बुलाते हैं। शकुनि जिस तरह दगाबाजी से चल रहे हैं वह हम अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए उनको अपने घर जाने की आज्ञा दीजिए। यह सुन कर दुर्योधन को बड़ा क्रोध हुआ। वे सभा में गरज उठे :- हे विदुर ! तुम सदा जिसकी तरफ़दारी किया करत हो उसे हम अच्छी तरह जानते हैं। नमकहराम आदमी क्या पापी नहीं होता ? तब तुम किसलिए धर्म के बहाने हम लोगों का सदा तिरस्कार किया करते हो ? हम तुमसे भलाई या बुराई की बातें नहीं सुनना चाहते । इसलिए अपने ही को कर्ता- धर्ता समझ कर अब कभी व्यर्थ उपदेश न देना। यह जान लेना कि क्षमाशीलता की भी हद् होती है। धतराष्ट्र हक्का बक्का से रह गये। उन्हें कुछ भी न सूझा कि क्या कहना चाहिए या क्या करना चाहिए। उधर युधिष्ठर जुआ खेलने में इतने मस्त थे कि उन्होंने इस बातचीत की तरफ ध्यान ही न दिया। इससे शकुनि को और भी अच्छा मौका मिला। वह बातें बना बना कर उन्हें और भी उत्तेजित करने लगा। वह बोला :- यधिष्ठिर : तमने तो पाण्डवों की सभी सम्पत्ति नष्ट कर दी। कहो, अब तुम्हारे पास और भी कुछ है कि नहीं; यदि न हो तो ग्वेल बन्द करना ही अच्छा है। युधिष्ठिर रुष्ट होकर बोले :- हे सुबल के पुत्र ! हमारे पास धन न होने के सम्बन्ध में तुम क्यां सन्देह करते हो। हमारे पास अब भी बहुत सा धन बाकी है। यह कह कर अपना सब सोना, चाँदी, मणि, माणिक्य तथा भाई और नौकर लोग जो गहने पहने थे वे सब उतार कर उन्होंने दाँव पर रख दिये। इस बार भी वे, पहले ही की तरह, हार गये। अन्त में बिना समझ बूझ उन्होंने कहा :-- हे शकुनि ! हमारे दोनों छोटे भाई हमें बहुत प्यारे हैं। यद्यपि वे दाँव में रखने के योग्य नहीं तथापि हम उन्हें दाँव में रख कर तम्हारं साथ खेलेंगे। शकुनि पाम फेंकते ही जीत गया और वाला :- तुम्हारे प्यारे माद्री के इन दोनों पुत्रों को हमने जीत लिया। हम समझते हैं कि अब तुम अपने विशेष प्यारे भीम और अर्जुन को इन्हीं की तरह दाँव में रख कर खेलने का साहस न करोगे। इसलिए अब खेल खतम होने दो। युधिष्ठिर ने ऋद्ध होकर कहा :- रे मूढ़ । ऐसी अनुचित बातें करके क्या तू हम लोगों के बीच में भेद डालना चाहता है ? यद्यपि भीम और अर्जुन दाँव पर रखने योग्य बिलकुल नहीं हैं तथापि हम उन्हें रक्खे देते हैं। हाँ, चला पॉसे। फा० १२